Saturday, September 10, 2011

सप्तदशोऽअध्यायः श्रद्धात्रयविभागयोग



सप्तदशोऽअध्यायः
श्रद्धात्रयविभागयोग

श्रद्धायुक्त जो पूजन करता, न जाने पर शास्त्र विधि
निष्ठा उसकी होगी कैसी, सात्विक, राजस या तामसी

जो केवल स्वभाव से उत्पन्न, शास्त्रीय संस्कार रहित है
किसी के भीतर ऐसी श्रद्धा, तीनों तरह की हो सकती है

श्रद्धामय है पुरुष सदा यह, जैसी श्रद्धा उसे वैसा मान
उसके अंतःकरण से उपजी, श्रद्धा उसकी प्रकृति जान

सात्विक जन तो देव पूजते, यक्ष, राक्षस को राजस जन
जो तामस प्रकृति के नर हैं, वे पूजें प्रेत और भूतगण

दम्भ, अहम् से युक्त हुए जो, शास्त्रविधि से रहित तप करें
आसक्त व कामी जन जो, निज बल का अभिमान करें

जो शरीर को देते कष्ट, अंशरूप आत्मा को सताते
है आसुरी प्रकृति उनकी, कुछ अज्ञानी घोर तप करते

निज प्रकृति के अनुसार ही, भोजन भी सबको भाता है
यज्ञ, तप व दान भी अर्जुन, तीन तरह का ही होता है

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति बढाने वाला
रसयुक्त, स्निग्ध, सुस्वादु, सात्विक जन को भाने वाला

कटु, तीक्ष्ण, लवण युक्त हो, अति गर्म, रुक्ष, दाहकारक जो
दुःख, चिंता रोगों को लाता, राजस को भोजन भाता वो

अधपका और रस रहित हो, बासी, जूठा, दुर्गन्धित जो 
है अपावन ऐसा भोजन, तामस जन करे ग्रहण वो 

शास्त्र विधि से जो सम्मत हो, निष्काम जो यज्ञ है पावन
कर्त्तव्य मान जो किया गया हो, कर्ता उसके सात्विक जन

केवल दम्भ आचरण हेतु, फल की इच्छा से किया  
ऐसा यज्ञ राजसिक होता, सिद्ध न उससे हेतु होता

शास्त्र विधि का ध्यान नहीं हो, अन्नदान से रहित यज्ञ हो
बिना दक्षिणा व मंत्रों के, बिन श्रद्धा, तामस है यज्ञ वो 

2 comments:

  1. बहुत ज्ञानवर्धक...आभार

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  2. dhanyawaad aapke mere blag me aane ka bahut hi sundar aur gyanwardhak hai aapki rachna

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