Thursday, September 8, 2011

षोडशोऽध्यायः (अंतिम भाग) देवासुरसम्पदविभागयोग


षोडशोऽध्यायः (अंतिम भाग)
देवासुरसम्पदविभागयोग


आज किया, कल यह करना है, आज मिला, यह कल पाना है
इसे हराया, उसे हरा लूँ, सिद्धि युक्त, बलवान सुखी हूँ

मैं धनी, परिवार बड़ा है, मेरे जैसा कौन यहाँ है
यज्ञ करूँगा, दान भी दूँगा, बड़े मजे से यहाँ रहूँगा

ऐसे वे अज्ञान से मोहित, भ्रमित हुए, आसक्त हुए जन
ऐसी आसुर प्रकृति लिए वे, नरकों में जाते हैं अपावन

सुख को ही वे श्रेष्ठ मानते, धन व मान के मद में चूर
नाम मात्र के यज्ञ वे करते, शास्त्र विधि से रहते दूर

स्वयं के व अन्यों के भीतर, मुझ अन्तर्यामी के द्वेषी
क्रूर क्रम करते हैं जो नर, पाते हैं वे आसुरी योनि

मुझे प्राप्त न होकर वे नर, बार-बार नरकों में जाते
आसुरी प्रकृति को पुनः पाकर, नीच गति को प्राप्त वे होते

काम, क्रोध व लोभ ये तीनों, नाश आत्मा का करते हैं
यही नर्क के द्वार हैं अर्जुन, ज्ञानी इनको तज देते हैं

मुक्त हुआ जो इन द्वारों से, परम गति वह पा जाता है
स्वयं का ही कल्याण वह करता, मुझे प्राप्त फिर हो जाता है

जो मनमानी करता जग में, शास्त्र विधि को मान न देता,
सिद्धि उससे दूर ही रहती, न सुख न उच्च गति को पाता

अकर्त्तव्य व कर्त्तव्य का, ज्ञान शास्त्र से मिल सकता है
आदर कर शास्त्र का ही तू,  इससे आगे बढ़ सकता है 


 

1 comment:

  1. वाह बहुत सुन्दर चित्रण किया है…………आभार्।

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