श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चशाधिकशततम: सर्ग:
भरत का नंदीग्राम में जाकर श्रीराम की चरणपादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करके उन्हें निवेदनपूर्वक राज्य का सब कार्य करना
माताओं को अयोध्या में रख, दृढ़ प्रतिज्ञ भरत ने कहा
गुरुजन से आज्ञा माँगू , अब मैं नंदीग्राम रहूँगा
श्रीराम वियोग से उत्पन्न, दुख महा वहीं सहन करूँगा
इस राज्य के लाभ के हेतु, करूँगा भाई की प्रतीक्षा
गये स्वर्ग पिता, राम वन में, वह गुरु हैं पूजनीय मेरे
मंत्री और पुरोहित वसिष्ठ, शुभ वचन भरत का सुन बोले
भातृ भक्ति से प्रेरित होकर, यह जो तुमने बात कही है
प्रशंसनीय होने के साथ, वास्तव में योग्य तुम्हारे है
भाई के दर्शन भी चाहते, हित साधन में उनके लीन
श्रेष्ठ मार्ग पर स्थित हो तुम, करे न कौन तुम्हारा अनुमोदन
मंत्रियों का प्रिय वचन सुना, तब सारथी से भरत ने कहा
रथ तैयार करो शीघ्र तुम, ली माताओं से भी आज्ञा
रथ पर वे आरूढ़ हो गये, उसी समय शत्रुघ्न के साथ
मंत्रियों और पुरोहितों से घिर, ब्राह्मण भी चल रहे साथ
अयोध्या से पूर्वाभिमुख, नंदीग्राम का पथ पकड़ा
अश्व, गजों रथ से भरी, स्वयं पीछे-पीछे चल दी सेना
पुरवासी भी साथ हो लिए, भातृवत्सल भरत के पीछे
मस्तक पर रख चरण पादुका, बहुत शीघ्रता से जाते थे
उतर नंदीग्राम में रथ से, गुरुजनों से भरत ने कहा
धरोहर के रूप में मुझको, भाई ने राज्य यह सौंपा
सुवर्णाभूषित पादुकाएँ, निर्वाह करें योगक्षेम
उनके प्रति मस्तक झुकाया, राज्य कर दिया उन्हें समर्पित
इन पर धारण करें छत्र अब, इन्हें मानूँ भाई के चरण
इनके द्वारा ही राज्य में, परम धर्म का होगा स्थापन
प्रेम के कारण ही भाई ने, यह धरोहर मुझे सौंप दी
रक्षित होगी मुझ द्वारा, उनके वापस लौटने तक ही
इसके बाद स्वयं इनको मैं, श्रीराम को लौटा दूँगा
पादुकाओं से सज्जित, चरण युगलों का दर्शन करूँगा
उनके आने पर मिलते ही, राज्य समर्पित उनको कर के
आज्ञा के अधीन रहकर, सदा सेवा में उनकी रह के
राज्य भार तब उन्हें सौंप कर, स्वयं हल्का हो जाऊँगा
श्रीराम की सेवा में दे, पश्चाताप से मुक्त रहूँगा
ककुत्स्थकुल भूषण श्रीराम के, राजा के पद पर होने से
हर्षित होंगे लोग सभी, चौगुना मिलेगा आनंद मुझे
इस प्रकार दीनभाव से भरकर, कर विलाप दुख मग्न भरत
राज्य चलाने लगे वहीं से, वह मंत्रियों के संग मिलकर
वल्कल और जटा धारण कर, सदा मुनिवेश में वहाँ रहे
भाई की आज्ञा पालन कर, प्रतिज्ञा के भी पार गये
राज्य का समस्त कार्य वे, पादुकाओं को निवेदन करते
ख़ुद ही उनपर छत्र लगाते, स्वयं ही चंवर डुलाते थे
ख़ुद रहकर उनके अधीन वे, मंत्रियों से कार्य करवाते
जो भी कार्य उपस्थित होता, प्रबंध यथावत उसका करते
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में
एक सौ पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ.
बहुत सुंदर रचना, अनिता दी।
ReplyDeleteस्वागत व आभार ज्योति जी!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteधन्यवाद
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स्वागत व आभार !
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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