श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
चतुर्दशाधिकशततम: सर्ग:
भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन तथा अंत:पुर में प्रवेश करके भरत का दुखी होना
महायशस्वी भरत आ गये, घर्घर घोष युक्त रथ द्वारा
शीघ्र किया प्रवेश नगरी में, अयोध्या को सूना पाया
विचर रहे थे बिलाव, उलूक भी, घरों के किवाड़ बंद थे
कृष्ण पक्ष की काली रात सा, अंधकार छाया नगर में
चंद्रमा को ज्यों राहु डस ले, रोहिणी असहाय तब होती
दिव्य ऐश्वर्य से प्रकाशित, अयोध्या अब राजा हीन थी
कृशकाय सी उस नदी सी, जल जिसका गंदला हो जाये
भाग गये हों पक्षी सारे, मीन, ग्राह छिप जायें जल में
धूम रहित इक ज्योति शिखा सी, जो सदा प्रकाशित होती थी
श्रीराम के वनवास से, बुझकर जैसे लगती विलीन सी
महा समर में संकट ग्रस्त, दिखायी पड़ती उस सेना सी
जिसके कवच टूट गये हों, मुख्य वीरों को मृत्यु हो मिली
फेन, गर्जना संग उठी, लहर समुद्र की शांत हो जाती
कोलाहल पूर्ण अयोध्या अब, शब्द शून्य जान पड़ती थी
यज्ञकाल समाप्त होने पर, शांत हुआ हो मंत्रोच्चारण
वैसे ही अयोध्या नगरी, जान पड़ती अतीव सुनसान
समागम हेतु गैया उत्सुक हो, किंतु उसे अलग किया हो
आर्त भाव से बंधी गोष्ठ में, अयोध्या दुखी अंतर में
मोती की वह माला जिससे, सुंदर मणियाँ अलग की गई
श्रीहीन हुई थी अयोध्या, रामचन्द्र से रहित हुई थी
आसमान से गिरी तारिका, जैसे पुण्य भ्रष्ट हुई हो
शोभाहीन जान पड़ती थी, जिसकी प्रभा क्षीण हुई हो
जैसे पुष्पित लता सुशोभित, दावानल से झुलस गई हो
अब उदास जान पड़ती थी उल्लास पूर्ण थी पूर्व में जो
किंकर्तव्यविमूढ़ व्यापारी, बाज़ार भी कम खुले थे
उस गगन की भाँति लगती, मेघ श्याम जहां घिर आये थे
स्वच्छ नहीं थी गलियाँ, सड़कें, उजड़ी हुई मधुशालायें
टूटी बिखरीं पड़ी प्यालियाँ, पीने वाले विनष्ट हुए
दशा पुरी की उस प्याऊ सी, ढह गया जो स्तंभ टूटे हों
जलपात्र बिखरें सभी ओर, पानी भी जिसका चुक गया हो
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