श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
चतुरधिकशततम: सर्ग:
वसिष्ठ जी के साथ आती हुई कौसल्या का मंदाकिनी के तट पर सुमित्रा आदि के सम्मुख दुःखपूर्ण उद्गार, श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के द्वारा माताओं की चरण वंदना तथा वसिष्ठ जी को प्रणाम करके श्रीराम आदि का सबके साथ बैठना
सत्यप्रतिज्ञ नरश्रेष्ठ राम, देख उन्हें तब खड़े हो गये
स्पर्श किया कमल चरणों का, बारी-बारी से उन सबके
विशालनेत्र माएँ स्नेह वश, कोमल थीं जिनकी अंगुलियाँ
धूल पोंछने लगी पीठ से, सुखद स्पर्श सुंदर हाथों का
लक्ष्मण भी अति दुखी हो गये, देख दर्द उन माताओं का
स्नेहपूर्वक धीरे-धीरे फिर, उन चरणों में प्रणाम किया
श्रीराम के साथ किया जैसा, वैसा ही स्नेह दर्शाया
माताओं ने उनकी पीठ पर, कोमल हाथों को फिराया
अश्रुओं भरे नेत्रों वाली, सीता ने फिर प्रणाम किया
कौसल्या ने हृदय लगाया, जैसे बेटी को कोई माँ
विदेहराज जनक की पुत्री, पुत्रवधू राजा दशरथ की
श्री राम की पत्नी सीता, माता पूछें, क्यों दुःख भोगती
मुख तुम्हारा लग रहा ऐसा, धूप से तपा हआ कमल ज्यों
कुचला उत्पल, धुसरित स्वर्ण या ढका बदलियों से चाँद हो
जैसे काष्ठ को अग्नि जलाती, सीता! लख तुम्हारे मुख को
आपद अरणि से उत्पन्न दुःख,जला रहा है मेरे मन को
शोकाकुल माँ विलाप करें, राम ने पकड़ा गुरु चरणों को
जैसे स्वर्ग के राजा इंद्र, स्पर्श करें बृहस्पति चरण को
अग्नि समान तेज था जिनका, गुरु वशिष्ठ के चरण थाम कर
आदर, प्रेम से भरे हुए, राम बैठ गये वहीं भूमि पर
उसके बाद भरत भी बैठे, बड़े भाई के पीछे आकर
मंत्री, सैनिक, पुरवासी व, धर्मज्ञ पुरुषों के साथ तब
दिव्य दीप्ति से प्रकाशित थे राम, निकट बैठे हुए भरत ने
उनके प्रति हाथ जोड़े तब, ब्रह्मा जी को इंद्र ज्यों जोड़ें
वहाँ बैठे श्रेष्ठ पुरुषों के, हृदय में तब जगा कौतूहल
क्या कहते हैं भरत राम को, आदर से प्रणाम करके अब
सत्यप्रतिज्ञ राम, श्रेष्ठ लक्ष्मण, धर्मात्मा भरत तीनों वे
त्रिविध अग्नियों सी शोभा पाते थे, सुहृदयों से घिरे हुए
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में
एक सौ चारवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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