श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
त्र्यधिकशततम: सर्ग:
श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन
पुष्पित कानन से सुशोभित, जो शीघ्र गति से बहने वाली
तीर्थ भूत जलों से युक्त, सदा रमणीय नदी मंदाकिनी
गतिमय, उत्तम घाट हैं जिसके, पंक रहित सुंदर नदी पर
जल प्रदान किया राजा को, दक्षिण दिशा में अंजलि भरकर
आपके हित उपस्थित नीर, मिले आपको अक्षय रूप से
पूज्य पिताजी राज शिरोमणि, दुखी हुए तब कहा राम ने
तत्पश्चात् किनारे पर आकर, तेजस्वी श्री रघुनाथ ने
पिंड दान किया पिता हित, मिलकर संग तीनों भाइयों के
बेर मिलाकर इंगुदि गूदे में, बिछे हुए कुशों पर रखा
अत्यंत दुःख से कातर होकर, वचन उन्होंने यही कहा
आनंद से स्वीकारें इसको, आजकल आहार हमारा
मानव जो अन्न खाता है, वही ग्रहण करते हैं देवता
उस मार्ग से तब ऊपर आकर, चित्रकूट पर्वत पर चढ़े
पर्णकुटी द्वार पर आकर, पकड़ भाइयों को रोने लगे
सीता व चारों भाइयों के, रुदन शब्द से हुई प्रतिध्वनि
मानो पर्वत पर गर्जना करते, सिंहों की दहाड़ की ध्वनि
रोदन का सुन तुमुल नाद यह, सैनिक भी भयभीत हो गये
भरत भाई से जा मिले हैं, फिर उसे पहचान कर बोले
सवारियों को वहीं छोड़कर, ध्वनि की दिशा में दौड़ पड़े
कुछ अश्वों से, कुछ हाथियों से, कुछ पैदल ही निकल पड़े
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