Wednesday, February 16, 2022

कौसल्या का मंदाकिनी के तट पर सुमित्रा आदि के सम्मुख दुःखपूर्ण उद्गार,

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


चतुरधिकशततम: सर्ग:


वसिष्ठ जी के साथ आती हुई कौसल्या का मंदाकिनी के तट पर सुमित्रा आदि के सम्मुख दुःखपूर्ण उद्गार, श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के द्वार माताओं की चरण वंदना तथा वसिष्ठ जी को प्रणाम करके श्रीराम आदि का सबके साथ बैठना 


राम दर्शन की ले अभिलाषा,  रानियों को करके आगे

मुनि वसिष्ठ  चल पड़े  उस ओर, जहाँ राम निवास करते थे 


मंद गति से चलती हुईं वे, मंदाकिनी घाट पर पहुँचीं 

देख जिसे कौसल्या के मुख पर, धार अश्रुओं की बहती 


शुष्क और उदास मुख से तब, कहे वचन सुमित्रा व सबसे 

आलस्य रहित पुत्र लक्ष्मण, राम हेतु जल लेते यहाँ से 


राज्य से निकाले गये जो, उन अनाथों का है तीर्थ यही  

  प्रिय बालक हैं जो मेरे,  दुःख अन्यों को देते कभी नहीं


लघु सेवा कार्य स्वीकार किया, किंतु नहीं निंदित हैं लक्ष्मण

गुणवान बड़े भाई के कार्य, नहीं करें वे ही हैं अक्षम 


किंतु नहीं है योग्य दुखों के, सहन उसे करने पड़ते हैं 

लौट चलें अब यदि श्रीराम, दुःख दायक कर्म सभी त्यागें 


आगे जा विशाल लोचना,  कौसल्या ने  देखा राम को

वसुंधरा  पर बिछे कुशों पर , इंगुदि का पिंड रखते जो


दुखी राम के द्वारा पिता हित, पिंड दिए जाने को देख 

 कहा कौसल्या ने, “देखो बहनों, विधिपूर्वक किया है श्राद्ध” 


देव समान तेजस्वी राजा, उत्तम भोगों को भोग चुके  

उनके लिए उचित नहीं यह,  कैसे इसे वह ग्रहण करेंगे 


इससे बढ़कर क्या दुख होगा, समृद्धिशाली होकर भी राम 

इंगुदी के पिसे फल का पिंड, दान पिता हित करते आज 


लौकिक श्रुति यह सत्य लग रही, हृदय विदीर्ण हुआ है  दुःख से

 जो अन्न स्वयं खाता मानव, वही खाते देवता उसके  


शोक से व्याकुल कौसल्या को, समझाकर ले गयीं रानियाँ 

आश्रम में श्रीराम को देखा,  गिरे स्वर्ग से ज्यों देवता 


त्याग सभी भोग का करके, तपस्वी जीवन वे जीते थे 

दुःख से कातर हुईं माताएँ, रोने लगीं आर्त भाव से 




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