Thursday, February 10, 2022

श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

त्र्यधिकशततम: सर्ग: 


श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन 


कुछ ही समय तो अभी हुआ था, श्री राम को उनसे बिछड़े 

किंतु सभी को लगा यही था, देखा नहीं है जाने कब से 


जल्दी देखें मिलन भाइयों का,  उत्सुकता सबके मन में 

नाना तरह की सवारियों पर, बड़ी उतावली से निकले 


रथ के पहियों से आक्रांत, भूमि भयंकर शब्द कर रही 

ज्यों मेघों की घटा घिरने से, गड़गड़ाहट होने लगती 


तुमुलनाद से होकर भयभीत, हाथी, हथिनियों से घिरकर 

मद की गंध सुवासित करते, गये दूसरे वन में चलकर 


वराह, भेड़िए, सिंह, भैंसे, सृमर, व्याघ्र, गोकरण व गवय 

हरिण, हंस, जल कुक्कुट, कारंडव, नर कोकिल व क्रौंच भागे  


हुए संत्रस्त, होश हवास खो, विभिन्न दिशा में चले गये    

डरे हुए उस शब्द से पक्षी, छा गये सम्पूर्ण गगन में 


भू पर मानव, नभ में पंछी, दोनों  की शोभा होती थी 

यशस्वी, पापरहित पुरुष से, मिलने की आशा मन में थी 


सहसा उनके पास गये सब, वेदी पर श्री राम बैठे थे 

अश्रु बहने लगे मुखों पर, कैकेयी की निंदा करते थे 


 श्रीराम ने देखा सबको, बड़े प्रेम से गले लगाया 

 यथा योग्य सम्मान किया , कुछ ने चरणों में प्रणाम किया 


रोते हुए प्रजाजनों का, रुदन मृदंग की ध्वनि समान था 

 गगन, गुफा, दिशाओं में गूंजे, सभी ओर व्याप्त रहा था  



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ तीनवाँ सर्ग पूरा हुआ.


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