द्विनवतितम: सर्ग:
भरत का भरद्वाज मुनि से जाने की आज्ञा लेते हुए श्रीराम के आश्रम पर जाने का मार्ग जानना और मुनि को अपनी माताओं का परिचय देकर वहां से चित्रकूट के लिए सेना सहित प्रस्थान करना
आतिथ्य मुनि का ग्रहण किया, कुटुंब सहित आश्रम में उनके
जाने की आज्ञा लेने, हाथ जोड़ गए मुनि से मिलने
पुरुष सिंह को आया देखा, अग्निहोत्र कर मुनि यह बोले
क्या सुख से बीती रात तुम्हारी, अन्य सभी सन्तुष्ट हुए
कर प्रणाम कहा भरत ने, सुख पूर्वक रहा सेना के संग
ग्लानि और सन्ताप से रहित, हम सब रहे पा उत्तम अन्न
अब आज्ञा लेने मैं आया, भाई के समीप जाने हित
कितनी दूर है आश्रम उनका, मार्ग कौन सा होगा उचित
कहा महा तेजस्वी मुनि ने, यह पूछे जाने पर उनसे
ढाई योजन की दूरी पर, चित्रकूट है पर्वत वन में
उत्तरी किनारे से जिसके, मन्दाकिनी नदी बहती है
फूलों लदे घने वृक्षों से, आच्छादित सदा रहती है
नदी के उस पार है पर्वत, वहीं पर्णकुटी श्रीराम की
जहाँ निवास किया करते हैं, वे दोनों भाई निश्चय ही
यमुना के दक्षिणी किनारे से, तुम सेना लेकर जाओ
आगे जा दो मार्ग मिलेंगे, बाएं से चलो दक्षिण को
प्रस्थान की बात सुनी जब, सभी रानियां वहाँ आ गयीं
छोड़ सवारी को अपनी वे, मुनि को घेर खड़ी हो गयीं
दुर्बल और अति दीन कौसल्या, संग सुमित्रा के आयी
चरण स्पर्श किये मुनि के, कैकेयी ने भी, जो थी लजायी
भरद्वाज ने कुमार भरत से, माताओं का परिचय पूछा
वाक् कला में जो कुशल अति थे, हाथ जोड़ यह भरत ने कहा
शोक और उपवास के कारण, जो दुर्बल व अति दुखी हैं
बड़ी महारानी हैं पिता की, देवी सी प्रतीत होती हैं
माँ अदिति ने ज्यों धाता नामक, आदित्य को जन्म दिया था
उसी तरह सिंह समान राम को, कौसल्या ने जन्म दिया
इनकी बायीं बाँह से सटकर, उदास व दुःख से आतुर हैं
मझली रानी महाराज की, लक्ष्मण व शत्रुघ्न की माँ हैं
वन के भीतर झड़ गए पुष्प हों, जिस कनेर की डाली के
उसके ही समान लगती हैं, आभूषण शून्य होने से
जिसके कारण राम-लक्ष्मण, वनवास में जा पहुंचे हैं
राजा पुत्रवियोग से मरे, वह मेरी माँ कैकेयी है
क्रोधित है स्वभाव से ही जो, गर्वीली राज्य की लोभी
मुझ पर जो संकट आया है, इसका मूल कारण यह बनी
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