श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्ट सप्ततितमः सर्गः
शत्रुघ्न का रोष, उनका कुब्जा को घसीटना और भरतजी के कहने से उसे मूर्छित अवस्था में छोड़ देना
शत्रुओं का दमन जो करते, उस शत्रुघ्न ने भर
रोष में
कुब्जा को भूमि पर घसीटा, चिल्लायी वह बड़े
जोर से
मंथरा जब घसीटी जाती, सब आभूषण टूट रहे थे
नाना तरह के वे आयोजन, पृथ्वी पर बिखर जाते थे
आभूषण के उन टुकड़ों से, राजमहल शोभित होता था
शरद काल का अम्बर जैसे, हो तारागण से सजा हुआ
तत्क्षण कैकेयी ने आकर, मंथरा को छुड़ाना चाहा
कह कठोर बातें उसको भी, भर क्रोध में उसे धिक्कारा
कैकेयी को हुई अति पीड़ा, सुनकर दुखदायी वचन
वे
शत्रुघ्न के भय से थर्रा, गयी तब भरत की वह
शरण में
क्षमा करो ! स्त्रियाँ अवध्य हैं, यह कहा भरत ने
शत्रुघ्न को
भय अति राम की घृणा का, मातृघाती समझेंगे मुझको
कुब्जा के भी मर जाने का, समाचार मिलेगा यदि
उन्हें
त्याग देंगे बोलना निश्चय, हो दुखी वे हम
दोनों से
बात सुनी जब भाई भरत की, छोड़ दिया मंथरा को
तब
गिर कैकेयी के चरणों में, करने लगी विलाप
करुण तब
आर्त और अचेत हुई सी, कुब्जा को देख कर कैकेयी
धीरे-धीरे आश्वासन दे, होश में
उसे लाने लगी
पिजरें में बंधी क्रौंची सी, कातर दृष्टि से देख
रही
कैकेयी की वह अनुचरी, थी शत्रुघ्न से अति डरी हुई
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि
निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अठहत्तरवाँ सर्ग
पूरा हुआ.
सुन्दर
ReplyDeleteआपका कार्य अद्भुत है , बधाई एवं शुभकामनाएं !
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