।। श्री सीतारामचंद्राभ्यां नम: ।।
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अरण्य कांडम्
प्रथम: सर्ग:
श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का तापसों के आश्रममण्डल में सत्कार
दंडक वन में किया प्रवेश, दुर्जय, वीर, बलवान राम ने
तापस मुनियों के अनेक आश्रम, उस अरण्य में स्थित देखे
कुश तथा वल्कल वस्त्र फैले थे, आश्रम थे पूर्ण सुरक्षित
ऋषियों की ब्रह्मविद्या का, महातेज होता था प्रज्ज्वलित
जैसे नभ में सूर्य मण्डल है, वैसे ही भू पर उपस्थित
आँगन सदा स्वच्छ रहता था, सब प्राणी थे वहाँ सरंक्षित
बसे थे उसमें वन्य पशु भी, पक्षियों ने घेरा हुआ था
बहुत मनोरम था प्रदेश वह, अप्सराओं का नृत्य स्थल था
उन आश्रमों के प्रति बहुत, मन में आदर का भाव भरा था
स्वादिष्ट फल देने वाले, वृक्षों से जंगल वह घिरा था
बड़ी-बड़ी अग्निशालाएँ, यज्ञ पात्र, मृगचर्म, कुश समिधा
जल से भरे कलश, फल-मूल, आश्रम की बढ़ाते थे शोभा
बलिवैश्वदेव, होम से पूजित, वेद ध्वनि से गूँजा करता
कमलपुष्प से शोभित सरोवर, फूलों का सुंदर बगीचा
चीर व श्याम मृगचर्म पहन कर, फल-मूल पर रहने वाले
जितेन्द्रिय, तेजस्वी मुनिजन, उस आश्रम में रहा करते थे
नियमित जीवन शैली जिनकी, परम महर्षियों से सुशोभित
ब्रह्मा जी के धाम की भाँति, आश्रम समूह वेद निनादित
कई ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण भी, आश्रमों की शोभा बढ़ाते
धनुष की प्रत्यंचा उतारी, देख तेजस्वी श्रीराम ने
श्रीराम व सीता को देख, दिव्य ज्ञान से संपन्न मुनिजन
बड़ी प्रसन्नता के साथ मिले, दिये अनेकों आशीर्वचन
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