श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकोनविंशत्यधिकशततम: सर्ग:
अनसूया की आज्ञा से सीता का उनके दिये हुए आभूषणों को धारण करके श्रीरामजी के पास आना तथा श्रीराम आदि का रात्रि में आश्रम पर रहकर प्रातःकाल अन्यत्र जाने के लिए ऋषियों से विदा लेना
माँ अनसूया ने सीता की, पूरी कथा सुनी हो हर्षित
भरा अंक में सीता को कहा, मधुर प्रसंग अति है विचित्र
मस्तक सूंघा, कहा फिर उनको, यद्यपि मन लगा है इसमें
किंतु सूर्य अब अस्त हो गये, पंछी जा पहुँचे नीड़ों में
जल से भीगे वल्कल पहने, कलश उठा वे लौट रहे हैं
मुनिजन जो स्नान कर आये, तापस जिनके तन भी आद्र हैं
अग्निहोत्र समाप्त कर लिया, मिलकर महर्षि अत्रि ने विधिवत्
वायुवेग से उठा हुआ यह, धुँआ दिखायी दे श्यामवर्ण
चारों ओर जो वृक्ष दिख रहे, अंधकार में घने लग रहे
भान दिशाओं का नहीं होता, चहुँओर निशाचर घूम रहे
रात्रि सजी है नक्षत्रों से, तपोवन के सब मृग सो गये
ज्योत्सना की ओढ़े ओढ़नी, चन्द्रदेव भी उदित हो गये
अब जाओ श्रीराम के निकट, जाने की आज्ञा देती हूँ
मधुर तुम्हारी बातों से मैं, अति प्रसन्न संतुष्ट हुई हूँ
इससे पहले करो अलंकृत, स्वयं को इन दिव्य गहनों से
रहो सुशोभित धारण कर लो, वस्त्र दिये जो तुमको मैंने
देवकन्या सम सीता ने, वस्त्राभूषण से शृंगार किया
शीश झुका कर किया प्रणाम, श्रीराम हेतु प्रस्थान किया
श्रीराम ने जब उन्हें देखा, दिव्य वस्त्र-आभूषण धारे
हुए अति प्रसन्न देख वह, प्रेमोपहार थे अनसूया के
जैसे उन्हें प्राप्त हुए थे, सब विवरण सीता ने सुनाया
दोनों भाई अति प्रसन्न थे, दुर्लभ स्नेह सीता ने पाया
चंद्रमुखी सीता के संग फिर, रात्रि वहीं विश्राम किया
उषाकाल वनवासी मुनियों ने, अग्निहोत्र कर ध्यान किया
अग्निहोत्र आदि के बाद, आज्ञा ली जाने की राम ने
राक्षसों से आक्रांत है मार्ग, धर्म परायण तापस बोले
उपद्रव करते ही रहते हैं, नरभक्षी राक्षस व पशु भी
जो तपस्वी अकेले मिल जाता, खा जाते उसे वे सभी
हिंसक जंतुओं व राक्षसों से, रक्षा करें आप हमारी
मार भगायें अथवा रोकें, यह आपसे विनती हमारी
यही मार्ग है जिससे होकर, वन के भीतर मुनि जाते हैं
फल-मूल लाने की ख़ातिर, यहीं से वे प्रवेश करते हैं
हाथ जोड़ सभी ब्राह्मणों ने, मिलकर स्वस्ति वाचन किया था
शत्रुहन्ता श्रीराम ने वन में, सीता संग प्रवेश किया
तीनों जब वन में जाते थे, उन्हें देख ऐसा लगता था,
घन की घटाओं में जैसे, सूर्यदेव ने प्रवेश किया था
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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