श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
पंचाधिकशततम: सर्ग:
भरत का श्रीराम को अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करने के लिए कहना, श्रीराम का जीवन की अनित्यता बताते हुए पिता की मृत्यु के लिए शोक न करने का भरत को उपदेश देना और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए ही राज्य ग्रहण न करके वन में ही रहने का दृढ़ निश्चय बताना
मिलन का अंत वियोग ही होता, जीवन का है अंत मरण
पके हुए फल ज्यों गिर जाते, पतन सिवा भय है उनको क्या
पैदा हुआ हर प्राणी मरे, मृत्यु सिवा उसको भी भय क्या
जैसे सुदृढ़ स्तम्भ वाला घर, ढह जाता जर्जर होने पर
सब मानव भी नष्ट हो जाते, जरा और मृत्यु वश पड़कर
रात्रि जो भी गुजर जाती है, नहीं लौटकर वापस आती
जल से भरे समुद्र को गयी, यमुना वापस नहीं लौटती
दिवस-रात गुजरते अविरत, आयु सभी की सदा ही घटती
सूर्य रश्मियाँ ग्रीष्म ऋतु में, ज्यों नीर सदा सुखातीं रहतीं
तुम स्वयं के लिए ही सोचो, क्यों करते हो शोक अन्य का
आयु नर की सदा घटती, हो अन्यत्र या वासी यहाँ का
मृत्यु सदा साथ ही चलती, संग बैठती सदा मानव के
दूर यात्रा में संग जाकर, साथ लौटती सदा उसके
तन पर पड़ीं झुर्रियाँ जिसके, सिर के केश सफ़ेद हो गए
जरावस्था से जीर्ण हुआ नर, मृत्यु से बचेगा कैसे
नर सूर्योदय पर खुश होते, सूर्यास्त का स्वागत करते
प्रतिदिन जीवन विनष्ट हो रहा, किन्तु न इतनी बात जानते
किसी ऋतु का प्रारम्भ देखकर, लोग हर्ष से खिल उठते हैं
पर न जानें ऋतु परिवर्तन से, क्षय होता प्राणों का उनके
ज्यों सागर में बहते दो काठ, मिलकर बिछड़ कभी जाते हैं
स्त्री, पुत्र, कुटुंम्ब, धन आदि, सदा साथ कब किसके रहते हैं
इस जग का कोई भी प्राणी, जन्म-मरण से नहीं बच सकता
स्वयं की मृत्यु को टाल न सके, मृत के लिए शोक जो करता
ज्यों जाते यात्रियों को देख, मार्ग में खड़ा पथिक सुनाये
मैं भी पीछे ही आता हूँ, तदनुसार वह पीछे जाये
वैसे ही पूर्वज हमारे, जिस मार्ग से गए हैं आगे
जिस पर जाना अनिवार्य है, जिससे कोई बच नहीं पाए
उस मार्ग पर खड़ा हुआ नर, औरों हित कैसे शोक मनाये
जैसे नदियाँ नहीं लौटतीं, ढलती आयु नहीं फिर आये
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