श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
पंचाधिकशततम: सर्ग:
भरत का श्रीराम को अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करने के लिए कहना, श्रीराम का जीवन की अनित्यता बताते हुए पिता की मृत्यु के लिए शोक न करने का भरत को उपदेश देना और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए ही राज्य ग्रहण न करके वन में ही रहने का दृढ़ निश्चय बताना
वह रात्रि शोक में ही बीती, सब भाई मिलकर बैठे थे
प्रातः काल मंदाकिनी तट गये, स्नान, होम, जप आदि किए
पुनः आकर हो मौन बैठ गए, कोई कुछ नहीं बोल रहा
सुहृदों के मध्य बैठे तब, भ्राता राम से भरत ने कहा
पिताजी ने देकर वरदान, संतुष्ट किया मेरी माँ को
माँ ने राज्य मुझे सौंपा, जो सेवा में अर्पित आपको
आप करें अब पालन इसका, मैं देता हूँ अपनी ओर से
वर्षा में भग्न पुल की भाँति, अति कठिन है सम्भालना इसे
गधा अश्व की, विहग गरुड़ की, चाल नहीं चल सकते जैसे
मुझमें भी सामर्थ्य नहीं यह , आप भाँति राज करूँ कैसे
करे अन्यों का जीवन निर्वाह, उत्तम है उसी का जीवन
जो अन्य के आश्रित रहता, अति दुखकारी है उसका हर दिन
जैसे फल की इच्छा रखकर, कोई एक पौधा लगाता
पालपोसकर बड़ा भी किया, किंतु नहीं उससे फल पाता
कैसे वह सुख पा सकता है, जिसने उसे लगाया था
इस उपमा को आप समझ लें, क्या इसमें समझाया था
श्रेष्ठ और समर्थ होकर, यदि आप राज्य का भार न लें
आप पर ही लागू होगा, जो प्रसंग कहा है पहले
विभिन्न संघ व प्रधान पुरुष सब, शत्रु दमन राम को देखें
तपते सूर्य की भाँति आप, जब राज्य सिंहासन पर बैठें
लौट अयोध्या चलने पर, मतवाले गज गर्जना करें
अंत:पुर की सारी स्त्रियाँ मिल, अभिनंदन हर्षित हो करें
भरत की बात का अनुमोदन, विभिन्न नागरिकों ने किया
तब धीर भगवान राम ने, देते हुए सांत्वना यह कहा
ईश्वर सम जीव नहीं स्वतंत्र, इच्छा से कुछ कर न सकता
काल डोर में बँधा हुआ है, इधर-उधर खिंचा है करता
No comments:
Post a Comment