श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
नवनवतितम: सर्ग:
नवनवतितम: सर्ग:
भरत का शत्रुघ्न आदि के साथ श्रीराम के आश्रम पर जाना, उनकी पर्णशाला को देखना तथा रोते-रोते उनके चरणों में गिर जाना, श्रीराम का उनको हृदय से लगाना और मिलना
यज्ञशाला में जिसके ऊपर, कोमल कुश बिछाए गए हों
लम्बी-चौड़ी उस वेदी सी, वन में वह शोभा पाती थी
कई धनुष वहां थे जिनके, पृष्ठ भाग सोने से मढ़े थे
शत्रु को पीड़ा देने वाले, तरकसों में बाण भरे थे
सूर्य की किरणों के समान, बहुत भयंकर बाण चमकीले
पर्णकुटी सशोभित उनसे, ज्यों पुरी भोगवती सर्पों से
स्वर्ण म्यान में दो तलवारें, दो विचित्र ढाल भी वहां थीं
स्वर्णमय बिंदुओं से सुशोभित, आश्रम की शोभा बढ़ातीं
गोह के चमड़े से बने जो,थे स्वर्ण जटित दस्ताने भी
मृग, सिंह पर हमला न करे ज्यों, कुटिया शत्रु हित अजेय थी
एक विशाल वेदी भी देखी, श्रीराम के उस स्थान में
नीचे ईशान कोण की ओर, अग्नि देवता स्थापित थे
पर्णशाला की ओर देखकर, भरत ने देखा श्रीराम को
जटामण्डल सिर पर धारे, वल्कल वस्त्र व चीर धारे को
लगा भरत को निकट हैं राम, है अग्नि समान दिव्य प्रभा
समुद्र पर्यंत पृथ्वी के स्वामी, महाबाहु व धर्मात्मा
सनातन ब्रह्मा की भांति, कुश से ढकी वेदिका पर बैठे
सिंह समान थे कंधे उनके, कमल समान नेत्र कोमल थे
सीता और लक्ष्मण के साथ, वेदी पर विराजमान थे
शोक-मोह में डूब गए थे, देख भरत उन्हें इस हाल में
उनकी ओर महान वेग से, दौड़े अति विलाप करते वे
नहीं रख सके धैर्य भरत फिर, गदगद वाणी में यह बोले
राजसभा में जो बैठकर, पाने योग्य हैं सबका आदर
वही बड़े प्रिय भ्राता मेरे, बैठे पशुओं से घिरे रहकर
कई सहस्र वस्त्रों का पहले, जो उपयोग किया करते थे
पहने केवल दो मृगचर्म , धर्माचरण पालन करते हैं
नाना प्रकार के पुष्पों को, जो सिर पर धारण करते थे
वही रघुनाथ इस काल में, जटा भार कैसे सहते हैं
यज्ञों के अनुष्ठान के द्वारा, जिनके लिए धर्म उचित है
देह को कष्ट दे जो मिलता, उस धर्म का संग्रह करते हैं
बहुमूल्य चंदन से जिनके, होती थी अंगों की सेवा
उन्हीं मेरे पूज्य भ्राता का, तन मल से सेवित है होता
सुख भोगने के योग्य सर्वथा, मेरे कारण दुख भोगते
हूँ कितना मैं क्रूर, अभागा, है धिक्कार मेरे जीवन को
इस प्रकार विलाप करने से, भरत अति ही व्याकुल हो गए
स्वेद बिन्दु झलकते मुख पर, चरणों में राम के गिर गए
हो संतप्त अति पीड़ा से, दीन वाणी में आर्य पुकारा
फिर कुछ भी नहीं बोल सके वह, अश्रुओं से गला रुँधा था
हा !आर्य !कह चीख उठे, जब यशस्वी श्रीराम को देखा
इससे आगे शब्द न निकले, शत्रुघ्न ने भी प्रणाम किया
श्रीराम ने उन दोनों को, उठा लगाया वक्षस्थल से
अश्रुओं की धारा वे भी, लगे थे नेत्रों से बहाने
तब सुमंत्र व निषादराज से, मिले श्रीराम, लक्ष्मण दोनों
मानो नभ में सूर्य चंद्रमा, शुक्र, बृहस्पति से मिलते हों
यूथराज गजराज पर बैठ, जो यात्रा करने योग्य थे
उन चारों को वहाँ देखकर, वनवासी अश्रु बहाते थे
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में
निन्यानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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