Sunday, March 7, 2021

श्रीराम का भरत के सद्भाव का वर्णन करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

सप्तनवतितम: सर्ग:


श्रीराम का लक्ष्मण के रोष को शांत करके भरत के सद्भाव का वर्णन करना, लक्ष्मण का लज्जित हो श्रीराम के पास खड़ा होना और भरत की सेना का पर्वत के नीचे छावनी डालना 


भरत के प्रति रोष के कारण, खो बैठे थे विवेक लक्ष्मण 

शांत किया श्रीराम ने उनको, समझा-बुझा कर कहे वचन 


महाबली उत्साही भरत जब, खुद ही यहाँ आ पहुँचे हैं 

धनुष-बाण या ढाल- तलवार, इनका कोई काम नहीं है 


पिता के सच की रक्षा हेतु, जिस राज्य को स्वयं ही त्यागा 

यदि छीन लूँ भरत से उसको, उसको लेकर क्या करूंगा 


जो धन मिलता हो विनाश से,  बंधु-बांधवों या मित्रों के 

विष मिश्रित भोजन की भांति,  नहीं उसे ग्रहण कर सकता मैं 


लक्ष्मण मैं प्रतिज्ञा कर कहता, धर्म, अर्थ, काम और राज्य 

तुम्हीं लोगों के हित चाहता, नहीं है कोई अन्य प्रयोज्य 


भाइयों के संग्रह की खातिर, राज्य की इच्छा करता हूँ 

उनके सुख के लिए चाहता, छूकर धनुष शपथ लेता हूँ 


सागर से घिरी यह धरती, मेरे लिए नहीं कभी दुर्लभ  

इन्द्र का पद  भी नहीं चाहता,  यदि करना हो मुझे अधर्म 


भरत, शत्रुघ्न व तुम्हें  छोड़कर, यदि मिले कोई सुख  मुझको 

अग्निदेव स्वयं उसे जला दें,   सौम्य लक्ष्मण ! तुम इसे सुनो 


भरत बड़े ही भातृभक्त हैं, प्राणों से अधिक मुझे प्रिय हैं 

ऐसा मुझे ज्ञात होता है, इस घटना से अति व्याकुल हैं 


कर विचार कुलधर्म का भरत, स्नेहभरे अंतर में अपने 

 हमसे मिलने वन आए हैं,  कारण नहीं अन्य  सिवा इसके


कैकेयी के प्रति कुपित हो, कठोर वचन सुनाकर उनको 

मुझे राज्य वापस लौटाने, करके प्रसन्न पिताजी को 


हम लोगों से मिलने आना, सर्वथा समुचित है भरत का 

बात  हमारे अहित की कोई, मन में ला सकते कभी ना 


कब, कौन सा अहित किया है, पहले कभी तुम्हारा भरत ने 

जिससे तुम भयभीत हुए, लाए ऐसी आशंका मन में 


अप्रिय या कठोर न बोलो, भरत के आने पर तुम उनसे 

यदि कोई प्रतिकूल बात की, मानूंगा, कही है मुझसे 


कैसी भी आपत्ति आये, बेटा, पिता को कैसे मारे 

प्राणों सम प्रिय भाई को, कैसे कोई भाई संहारे 

 

यदि  राज्य के हित तुम कहते, कहूँगा उससे दे तुम्हें राज्य 

अच्छा ! कह स्वीकारेंगे वे, पल न लगेगा, देंगे राज्य 


धर्मपरायण भाई ने जब, कहे वचन, लक्ष्मण शरमाये 

गड़ गए अपने अंगों में ही,  तत्पर थे उन्हीं के हित में 


लज्जित हुए लक्ष्मण ने तब, ,  कहा राम से,  ऐसा लगता

 खुद हमसे मिलने  हैं आए,  महाराज दशरथ ही पिता


 देख लक्ष्मण को तब लज्जित,  श्री राम ने यह वचन कहे थे 

 कष्ट भोगते हमें देखकर, दुखी पिता घर ले जाएंगे 


सुख का सेवन करने वाली, विदहराजपुत्री सीता को  

घर लेकर ही लौटेंगे वे, यूँ प्रतीत होता है मुझको 


वायु  समान वेग है जिनका, चमक रहे  बलशाली घोड़े 

देख रहा बूढ़ा गज भी, रहता था पिता की सवारी में 


किन्तु नहीं दिखाई देता, विश्वविख्यात छत्र पिता का 

सेना के मुहाने पर है,  मन में इससे संशय होता 


मेरी बात सुनो अब भाई,  नीचे आओ, कहा राम ने 

शाल वृक्ष से उतरे  लक्ष्मण,  निकट राम के खड़े हो गए 


उधर भरत ने दी आज्ञा,न सेना से हो कष्ट  किसी को 

आदेश उनका ही पाकर, सैनिक नीचे ही ठहर गए 


हाथी, घोड़ों व मानवों से, भरी हुई इक्षवाकु सेना 

छह कोस धरती घेर कर, डाले हुए वहाँ थी निज डेरा 


 श्रीराम को प्रसन्न करने, परम धर्म को सामने रखकर 

 जो नीतिज्ञ भरत लाए थे, वह सेना होती थी शोभित  



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

सत्तानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ.

 

No comments:

Post a Comment