श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्टनवतितम: सर्ग:
भरत के द्वारा श्रीराम के आश्रम की खोज का प्रबंध तथा उन्हें आश्रम का दर्शन
राम से भेंट का किया विचार, सेना ठहरा कर भरत ने
शत्रुघ्न से बोले तब वह, पता लगाओ शीघ्र ही वन में
साथ निषादों को ले अपने, लग जाओ तुम अन्वेषण में
मैं स्वयं रह मंत्रियों के सँग , पैदल ही विचरूँगा वन में
जब तक उनको देख न लूँगा, सीता और लक्ष्मण के साथ
तब तक शांति नहीं मिलेगी, नहीं मिलेगा मन को विश्राम
जब तक कमलनयन वाला मुख, प्रिय भाई का नहीं देखता
निर्मल है जो चंद्र समान, तब तक यह मन अशांत रहेगा
निश्चय ही सुमित्रानंदन, लक्ष्मण हुए कृतार्थ इस जग में
नित निरंतर दर्शन पाते, महातेजस्वी मुख का वन में
राजोचित लक्षणों से युक्त, जब तक उनके चरणों को मैं
अपने मस्तक पर नहीं धरूँगा, शांति नहीं पाऊँगा मैं
वही राज्य के सच्चे अधिकारी, जब तक हों नहीं अभिषिक्त
तब तक मेरा मन व्याकुल है, स्वामी वही समुद्र पर्यंत
जनक किशोरी विदेह नंदिनी, अनुसरण करतीं जो पति का
हुईं कृतार्थ इस सत्कर्म से, साथ निरंतर पातीं उनका
ज्यों कुबेर हैं नंदनवन में, राम बसे हैं जिसके वन में
चित्रकूट है मंगलकारी, वेंकटाच, हिमालय जैसे
हुआ कृतार्थ यह दुर्गम वन भी, जो सर्प से सेवित रहता
शस्त्र धारी श्रीरामचंद्र ने, जिस वन में निवास है किया
ऐसा कहक महातेजस्वी, पुरुष प्रवर महाबाहु भरत ने
पैदल ही गमन करते हुए, प्रवेश किया उस महावन में
वक्ताओं में जो श्रेष्ठ, भरत, वृक्ष समूहों से हो निकले
वनफूलों से भरे हुए थे, अग्रभाग जिनकी शाखा के
आगे जा शाल वृक्ष पर, बड़ी ही तेजी से गए वे चढ़
आश्रम से उठता था धुआँ, अति हर्षित हुए जिसे देखकर
देख धूम को हुई प्रसन्नता, "यहीं राम है" हुआ निश्चय
अथाह जल से पार हुए हों, ऐसा संतोष जगा मन में
आश्रम देखकर श्रीराम का, ऊपर चित्रकूट पर्वत के
शीघ्रता से उधर चले वे, निषाद राज को निज साथ लिए
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में
अट्ठानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ.
भारत मिलाप से पहले का द्रश्य उभर आया ... सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteअद्भुत वर्णन किया है आपने, शानदार ,सादर नमन, बहुत बहुत बधाई हो,
ReplyDeleteमुग्ध करता हुआ साहित्यिक ब्लॉग - - असाधारण कविताएं साधुवाद सह।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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