श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकनवतितम: सर्ग:
भरद्वाज मुनि के द्वारा सेनासहित भरत का दिव्य सत्कार
उत्तम व्रत का पालन करते, तेज युक्त भरद्वाज मुनि ने
आवाहन किया उन सबका, हो सम्पन्न एकाग्र चित्त से
पूर्व दिशा में दो हाथ जोड़कर, मन ही मन फिर ध्यान किया
एक-एक कर सभी देवता, आ पहुँचे ज्यों ही स्मरण किया
मलय व दर्दुर पर्वत को छू, बही पवन सुख देनेवाली
दिव्य पुष्पों की वर्षा हुई, दुंदुभियों का शब्द सुनायी
नृत्य, गान, वीणा के स्वरों से, धरती व आकाश भर गए
कोमल, मधु, लयगुण से सम्पन्न, कर्ण प्रिय था शब्द वह दिव्य
विश्वकर्मा का वास्तु कौशल, भरत की सेना ने निहारा
समतल हो गयी भूमि दूर तक, उग आयी उस पर दूर्वा
आम, बेल, बिजौरा, आंवला, भांति-भांति के वृक्ष लगे थे
चैत्ररथ वन आ पहुँचा था, भरा भोग की सामग्रियों से
तटवर्ती वृक्षों से शोभित, नदियां भी वहाँ आ पहुंची
उज्ज्वल घर, चबूतरे बन गए, निर्मित हुए नगर द्वार भी
हाथी, घोड़ों के रहने हित, शालाएं भी बनीं सुविशेष
अट्टालिकाएं, महल विशाल, लखते सब थे जिन्हें अनिमेष
राजा के परिवार हेतु इक, दिव्य भवन था श्वेत मेघ सा
सुंदर द्वार, सजा फूल से, दिव्य सुगन्धित जल से सींचा
चौकोना व अति विशाल था, सोने, बैठने लिए थे स्थान
भोजन, रस, वस्त्र सब कुछ थे, हरेक प्रकार के दिव्य पदार्थ
तरह-तरह के अन्न पात्र थे, सब प्रकार के आसन भी थे
सोने हित सुंदर शय्याएँ, किया प्रवेश भरत ने उसमें
गए पुरोहित और मंत्री, भवन देखकर हुए आनंदित
राज सिंहासन, चँवर छत्र भी, रखे हुए थे वहाँ सज्जित
श्रीराम की भरे भावना, प्रदक्षिणा की भरत ने उनकी
सिंहासन पर राम विराजते, यही सोच वन्दना भी की
चँवर हाथ में लेकर फिर वे, मंत्री के आसन पर बैठे
पुरोहित, मंत्री, सेनापति भी, यथोचित स्थानों पर बैठे
दो घड़ी में हुईं उपस्थित, नदियां भरत की सेवा में फिर
भरद्वाज मुनि के तप से, जल के स्थान पर जिनमें थी खीर
सुन्दर
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
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