श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकनवतितम: सर्ग:
भरद्वाज मुनि के द्वारा सेनासहित भरत का दिव्य सत्कार
किया भरत ने जब दृढ निश्चय, आश्रम में ही निवास करें वे
दिया निमंत्रण मुनि ने उसको,आतिथ्य उन्हीं का ग्रहण करे
वन में जैसा भी है संभव, अर्घ्य, पाद्य, फल, मूल मुझे दे
कर ही चुके हैं स्वागत मेरा, कहा, नहीं कुछ और चाहिए
हँसते हुए तब कहा मुनि ने, मेरे प्रति है स्नेह तुम्हारा
तुम मुझसे सन्तुष्ट रहोगे, जितना भी मैं तुमको दूंगा
किन्तु इस समय मैं चाहता, सेना को भोजन करवाऊँ
होगी इससे अति प्रसन्नता, इस अवसर से चूक न जाऊं
सेना को क्यों छोड़ के आये, मुनिवर ने भरत से पूछा
भय आपका ही था मुझको, दो हाथ जोड़ उत्तर यह दिया
तपस्वियों से दूर ही रहें, उचित यही है राजपुत्रों को
सेना में हाथी, घोड़े हैं, हानि होगी आश्रम भूमि को
सेना को यहीं बुलवाओ, दी मुनिवर ने तब यह आज्ञा
अग्निशाला में पहुँचे फिर वह, कर आचमन मुख पोंछा
विश्वकर्मा का कर आवाहन, उन्हें कहा मन्तव्य अपना
हो सेनासहित भरत का स्वागत, उचित प्रबन्ध करें इसका
इंद्र सहित लोकपालों को भी, इस कार्य का दिया आदेश
पृथ्वी व आकाश में बहती, नदियों का किया आवाहन
कुछ नदियां मैरेय ले आएं, कुछ सुरा, ईख सा मीठा जल
गन्धर्वों, अप्सराओं को, कहा पधारें वाद्ययंत्र संग
चैत्ररथ वन को बुलवाया, उत्तम अन्न हित कहा सोम से
ताजे पुष्प, मधु पेय पदार्थ, प्रस्तुत करें फलों के गूदे
हँसते हुए तब कहा मुनि ने, मेरे प्रति है स्नेह तुम्हारा
ReplyDeleteतुम मुझसे सन्तुष्ट रहोगे, जितना भी मैं तुमको दूंगा
इस प्रस्तुति के बारे प्रतिक्रिया करने के लिए योग्य नहीं मैं। आभार आपका हम सब के साथ ीसाझा करने के लिए
शुभकामनाओं सहित नमन
स्वागत व आभार!
Delete