श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्टाशीतितम: सर्ग:
श्रीराम की कुश शैया देखकर भरत का शोकपूर्ण उद्गार तथा स्वयं भी वल्कल वस्त्र और जटाधारण करके वन में रहने का विचार प्रकट करना
सुनीं ध्यान से भरत ने सारी, निषादराज की बातें उस क्षण
मंत्रियों सहित निकट आये फिर, इंगुदी वृक्ष का किया निरीक्षण
कहा उहोंने माताओं से, राम ने रात्रि बितायी यहीं पर
हुआ विमर्दित उनके अंगों से, यही कुश समूह सोये जिस पर
महाराजों के कुल में उत्पन्न, राजा दशरथ के पुत्र यह
धरती पर शयन करने के, नहीं योग्य हैं किसी तरह वह
पुरुषसिंह श्रीराम सदा ही, उस पलंग पर सोते आए
कोमल मृगचर्म की चादर, सुंदर बिछौनों से जो सजाये
कैसे सोते होंगे भू पर, सदा रहे हैं महलों में ही
स्वर्ण, रजत के फर्श हैं जिनके, पुष्पों से शोभा है जिनकी
श्रेष्ठ भवन व अट्टालिकाएं, श्वेत बादलों सी जो उज्ज्वल
चन्दन, अगुरु से सुगंधित, शुक समूहों का होता कलरव
शीतल कपूर की सुवास से, स्वर्ण सुशोभित दीवारों पर
सोते होंगे कैसे श्रीराम, वन में कुश की शैया पर
गीतों और वाद्य ध्वनियों से, जो सदा जगाये जाते थे
आभूषण की झंकार सहित, मृदङ्ग के उत्तम शब्दों से
समय-समय पर कई वंदीजन जिनकी, स्तुति किया करते थे
सूत और मागध भी जिनकी, वन्दना कर जिन्हें जगाते थे
कैसे सोते होंगे भूमि पर, शत्रुहन्ता श्रीराम वह
यह विश्वास के योग्य नहीं है, सच नहीं मुझको लगता यह
हुआ अवश्य मोहित मन मेरा, जैसे यह कोई स्वप्न है
काल समान नहीं कोई देव, जिसके कारण यह सम्भव है
काल के प्रभाव के कारण, विदेहराज की परम् सुंदरी
सीता भी भू पर सोतीं, पुत्रवधू महाराज दशरथ की
ReplyDeleteभरत के दुःख का मार्मिक चित्रण प्रस्तुति दिल को छू गई।
भरत जैसा भाई आज दुर्लभ है
स्वागत व आभार कविता जी !
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