बाल्मीकीयरामायणम्
पंचाशीतितमः सर्गः
गुह और भरत की बातचीत तथा भरत का शोक
हुआ संतोष बड़ा भरत को, गुह की ये प्रिय
बातें सुनकर
सेना को विश्राम हित कहा, शयन हित गये शत्रुघ्न
संग
धर्म पर दृष्टि रखने वाले, भरत नहीं थे योग्य
शोक के
फिर भी करते शोक राम हित, अचिन्त्य जिस दुःख का
वर्णन है
वन में फैले दावानल से, दग्ध वृक्ष को और
जलाती
उसी वृक्ष के खोखल में ही, छिपी हुई ज्वाला
अग्नि की
उसी प्रकार पिता मरण की, जो चिंता की अग्नि से
पीड़ित
रामवियोग की भीषण अग्नि भी, करने लगी अति संतप्त
रविकिरणों से तपा हिमालय, पिघलाने लगता ज्यों
बर्फ
शोकाग्नि से पीड़ित होकर, स्वेद बिंदु बहाते थे
भरत
आक्रांत करता था उनको, दुःख का एक विशाल
पहाड़
छिद्र रहित शिलाओं का समूह, मानो था राम का ध्यान
अति दुःख पूर्ण श्वास-निश्वास, ज्यों गैरिक धातु से
बहते थे
गहन दीनता प्रकट होती थी, वृक्ष समूहों के रूप
में
शोक जनित उनका आयास, था दुःख रूपी पर्वत
का शिखर
अतिशय मोह अनंत प्राणी थे, ओषधियाँ अति दुःख
संताप
अति पीड़ित था उनका अंतर, दीर्घ श्वास ले
सुधबुध खोयी
मानसिक पीड़ा के कारण, हृदय को शांति नहीं
मिलती थी
झुण्ड से बिछुड़े बैल की भांति, उनकी दशा बहुत दीन थी
मिले गुह से परिवार संग, भाई के लिए अति चिंता
थी
इस
प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचासीवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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