श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
पंचाशीतितमः सर्गः
गुह और भरत की बातचीत तथा भरत का शोक
निषादराज गुह के कहने पर,
महा
बुद्धिशाली भरत ने
कहकर
भाई किया संबोधित,
युक्तिपूर्ण
समुचित वचन से
अति विशाल इस सेना का तुम,
करना
चाहते हो सत्कार
है महान मनोरथ तुम्हारा,
समझो
हुआ है वह स्वीकार
श्रद्धा से ही हुआ सत्कार,
यह
कहकर श्रीमान भरत ने
गन्तव्य मार्ग दिखाकर,
पूछा
गुह से उत्तम वाणी में
दो मार्गों में किसके द्वारा,
मुनि
आश्रम पर हम जाएँ
अति
सघन है गंगा तट यह, कैसे इसको पार लगायें
वनचारी गुह ने यह सुनकर,
हाथ
जोड़कर कहा भरत से
साथ आपके मैं भी चलूँगा,
कई
मल्लाह भी संग ले
भलीभांति परिचित हैं वे सब,
इस
प्रदेश के सभी मार्ग से
सेना इतनी बड़ी देख कर,
किंतु
एक शंका है मन में
अनायास जो हैं पराक्रमी,
राम
के प्रति कुभाव तो नहीं
नभ सम निर्मल कहा भरत ने,
जब
गुह की ऐसी बात सुनी
ऐसा समय कभी न आये,
कष्ट
हुआ सुन बात तुम्हारी
बड़े भाई पिता समान हैं, मुझ पर करो संदेह नहीं
लौटाने राम को जाता,
सत्य
वचन कहता मैं तुमसे
नहीं अन्यथा करो विचार,
श्रीराम
हैं प्रिय भाई मेरे
खिला हर्ष से मुख निषाद का,
अति
प्रसन्न होकर वह बोला
आप धन्य हैं,
राज्य
त्यागा, बिना प्रयास ही जो था पाया
नहीं दिखाई देता मुझको,
धर्मात्मा
आप सम जग में
लौटाना राम को चाहते,
कष्टप्रद
वन में जो रहते
अक्षय कीर्ति फैलेगी इससे,
आपकी
समस्त लोकों में
उसी समय संध्या हो आयी,
गुह
जब कहता था ये बातें
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