Wednesday, August 21, 2019

निषादराज गुह के द्वारा लक्ष्मण के सद्भाव और विलाप का वर्णन


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

षडशीतितिमः सर्गः


निषादराज गुह के द्वारा लक्ष्मण के सद्भाव और विलाप का वर्णन

वनचारी निषादराज गुह ने, अतुलित शक्तिशाली भरत से
वर्णन किया तब सद्भाव का, राजकुमार वीर लक्ष्मण के

अधिक काल तक रहे जागते, भाई की रक्षा के हित वे
धनुष-बाण ले जब खड़े थे, कहे वचन ये मैंने उनसे

सुखदायिनी शय्या है यह, सुखपूर्वक सो जाइए इस पर
श्रीराम की रक्षा के हित, हम सभी जागेंगे रात भर

हम वनवासी दुःख सह सकते, पर पले-बढ़े हो तुम सुख में
फिर श्रीराम से बढ़कर दूजा, प्रिय नहीं कोई मुझे जग में

श्रीराम की कृपा प्रसाद से, हर पुरुषार्थ पाने की आशा
बन्धु-बांधवों सहित धनुष ले, श्रीराम की करूँगा रक्षा

इस वन में विचरण करने से, कुछ भी छुपा नहीं है मुझसे
चतुरंगिणी सेना का भी, अच्छी तरह सामना कर सकते

धर्म पर ही थी दृष्टि जिनकी, कहा लक्ष्मण ने विनय पूर्वक
जब देवी सीता संग श्रीराम, शयन कर रहे हैं भूमि पर 

संभव नहीं  नींद में सोना, मेरे हित उत्तम शय्या पर
ना ही अन्न सुस्वादु खाना, जीवनधारण करने के हित

देव-असुर मिलकर भी जिनके, आवेग को सह नहीं सकते
तिनकों पर शयन करते हैं, वे ही राम संग सीता के

महान तप व उपायों द्वारा, ज्येष्ठ पुत्र पाया राजा ने
जीवित नहीं रह पायेंगे, वन जाने से श्रीराम के 

विधवा हो जाएगी पृथ्वी, लगता है अब अल्प काल में
शांत हो चुकी होंगी स्त्रियाँ, आर्तनाद कर बड़े जोर से

माँ कौसल्या, राजा दशरथ, तथा मेरी माता सुमित्रा
जीवित रह पायेंगे क्या, आज रात तक कह नहीं सकता

शत्रुघ्न की बाट देखते, शायद मेरी माँ रह जाएँ  
किंतु वीर माता कौसल्या, कैसे अपने प्राण बचाएँ  

श्रीराम का राजतिलक हो, राजा का था यही मनोरथ
'सब कुछ नष्ट हो गया मेरा', कह करेंगे प्राणों का त्याग

उनके सम्मुख जो भी रहेंगे, जो उनका संस्कार करेंगे
वे  ही सफल मनोरथ हैं, भाग्यशाली ही वहाँ विचरेंगे

रमणीय चबूतरे जहाँ हैं, राजमार्ग विशाल बने हैं
देवमन्दिरों व अट्टालिकाओं से, रत्नों से जो सजे हुए हैं

हाथी, घोड़े और रथों के, आवागमन से भरी हुई है
वाद्यों का निनाद गूंजता, जो उद्यानों से शोभित है

अति भाग्यशाली हैं वे जन, अयोध्या में जो विचरेंगे
वनवास की अवधि पूर्ण कर, क्या हम वहाँ प्रवेश करेंगे

इस प्रकार विलाप करते ही, पूर्ण रात जाग कर बिताई
प्रातःकाल उगा जब सूरज, पूर्व दिशा में लालिमा छाई

दोनों के केशों की मैंने, वट दूध से जटा बनाई
सुखपूर्वक उन्हें पार उतारा, वल्कल धारी छवि सुहाई

महाबली, शत्रु सन्तापी, गज-यूथपति सम शोभा पाते
सुंदर तरकस व धनुष धरे, सीता के संग चले गये वे

  
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छियासीवाँ सर्ग पूरा हुआ.



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