Wednesday, February 6, 2019

कौसल्या के सामने भरत का शपथ खाना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


पंचसप्ततितमः सर्गः
कौसल्या के सामने भरत का शपथ खाना 

ऐसी कुछ कठोर बातें कह, फटकारा निर्दोष भरत को
ज्यों घाव में सुई चुभी हो, ऐसी अति पीड़ा हुई उनको

चरणों में गिर पड़े भरत फिर, मन में अति घबराहट लेकर
बार-बार विलाप करते थे, हो अचेत से गिरे वहीं पर

चेत हुआ जब हाथ जोड़कर, कौसल्या से वचन कहे ये
जो भी घटना यहाँ घटी है, मैं अनभिज्ञ हूँ हर बात से

मेरा कुछअपराध नहीं है, फिर भी मुझको दोष दे रहीं
रघुनाथ मुझे अति प्रिय हैं, यह सच भी आप जानती ही हैं

आर्य राम गये हों वन में, अनुमति से जिस भी दुर्जन की
सत्मार्ग का करे न पालन, उस पापी की बुद्धि कभी भी

सलाह से जिसकी बाधित हो, प्रिय राम  गये भीषण वन में
हीन जातियों का सेवक हो, मुक्त न हो भीषण पापों से

सेवक से अति श्रम कराकर, जो समुचित वेतन नहीं देता
वही पाप लगे उसको भी, जो ऐसे मालिक को लगता

जो राजा प्रजा का पालन, पुत्र की भांति ही करता है 
फिर भी उससे होड़ करे जो, उन्हें पाप भारी लगता है

वही पाप उसको लग जाये, अनुमति से जिसकी वन गये
उसी अधर्म का भागी हो, जो अधर्मी राजा को लगे

छठा भाग प्रजा से लेकर, जो उसकी रक्षा नहीं करता
होता है अधर्म का भागी, वह राजा सुख से नहीं रहता

ऋत्विज को दक्षिणा नहीं देता, यज्ञ में जो प्रतिज्ञा करके
 पाप जो भी लगता ऐसे को, वही पाप उस नर को लगे

जिसकी सम्मति से वे वन गये, उसे पाप वही लग जाये
जो समर्थ होकर भी रण में, निज धर्म को नहीं निभाए

गुरु के द्वारा प्रयत्नपूर्वक, प्राप्त ज्ञान को वह भुला दे
वंचित हो राम दर्शन से, अर्पित किये बिना वह खाए

गौओं को पैर से छू ले, गुरुजनों की निंदा हो उससे
मित्र के प्रति द्रोह का पाप, उस अधर्मी पापी को लगे

राम गये वन जिसके कारण, पाप लगे विश्वासघात का
अनुपकारी, कृतघ्न, परित्यक्त,  बने पात्र सबके द्वेष का  

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