Wednesday, June 7, 2017

कौसल्या का विलापपूर्वक राजा दशरथ को उपालम्भ देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


एकषष्टितम: सर्ग:

कौसल्या का विलापपूर्वक राजा दशरथ को उपालम्भ देना

प्रजाजन को सुख देते जो, धर्म परायण उन श्रीराम के
वन जाने पर होकर आकुल, कौसल्या ने ये वचन कहे

तीनो लोकों में है ख्याति, सभी जानते हैं आप उदार
किन्तु नहीं विचारा इसको, कैसे रहेंगे वन में राम

सुकुमारी वह तरुण कुमारी, जो सुख भोगने के है योग
शीत-ग्रीष्म कैसे झेलेगी, ग्रहण करेगी वन के भोग

मधुर ध्वनि सुना करती थी, हो सम्पन्न मांगलिक पदार्थ से
शब्द सुनेगी वहाँ अशोभन, भययुक्त हिंसक प्राणियों से

इंद्र समान उत्सव देते थे, महाबली, महाबाहु राम
परिघ समान बाँह तकिये पर, कैसे सोते होंगे याम

कमलकांति है जिनके मुख की, कमलनयन परम श्रीराम का
है सुवास जिनकी श्वास में,  कब देखूंगी सुंदर मुखड़ा

निश्चय ही मेरा अंतर यह, बना हुआ कठोर लोहे का
टुकड़े टुकड़े नहीं हो रहे, श्री राम को देख पाऊं ना

क्रूर कर्म यह किया आपने, वन को भेजा बिना विचारे
सुख भोगने के जो योग्य थे, वन में दौड़ें दीन हुए से 

इक दिन वन से जब लौटेंगे, भरत उन्हें राज्य दे देगा ?
उनके लिए तब राज्य, खजाना, भरत नहीं कभी त्यागेगा

सुना है कुछ लोग श्राद्ध में, निज बन्धु-बााँधवों को बुलाते
ब्राह्मणों को देने से पहले, भोजन उनको ही कराते

किन्तु वहाँ गुणवान ब्राह्मण, जो सभी देवतुल्य होते हैं  
 अमृत भी यदि गया परोसा, उसे स्वीकार नहीं करते हैं

यद्यपि पहली पंक्ति में भी, ब्राहमण ने ही भोजन पाया
भुक्त अन्न ग्रहण नहीं करते, जब अपमान का भय समाया

सींग कटाने को ज्यों बलवान, बैल नहीं होते तैयार
दूजी पंक्ति में न बैठें, ब्राहमण जो करते धर्म विचार

इसी तरह श्रेष्ठ भ्राता भी, कैसे राज्य वह ग्रहण करेगा
छोटे भाई ने भोगा हो, उसका सदा त्याग कर देगा

अन्यों के लाये शिकार को, बाघ नहीं चाहता जैसे
पुरुष सिंह राम भी ऐसे, भुक्त राज्य को न चाहेंगे

घृत, हविष्य, पुरोडाश औ कुश, खदिर यज्ञ में अर्पित होते 
उपभुक्त ये हो जाते हैं, एक बार ही काम में आते

भुक्तावशिष्ट पदार्थ की भांति, भोगे हुए इस राज्य को
ग्रहण नहीं करेंगे राम, नहीं सहेंगे अपमान को

महासमर हो सब लोकों से, राम नहीं डरेंगे फिर भी
त्याग किया इस राज्य कासहर्ष चले हैं राह वह धर्म की
भस्म करें प्राणियों को सब, अग्निदेव ज्यों प्रलयकाल में
 महासागरों को भी राम, निज बाणों से सहज सुखा दें

सिंह सम बल, आँख बैल सम, पिता के हाथों मारे गये
जैसे मत्स्य के शिशु निरीह, मत्स्य पिता से मारे जाते

देशनिकाला दिया आपने, धर्म परायण प्रिय बेटे को
नाश किया है निज राष्ट्र काहुए आनंदित हैं केवल दो

अतः प्रश्न यही उठता है, जिन धर्मों को वेद बतलाते 
द्विज आचरण में लाते हैं, क्या सत्य मानते आप उसे

  पति सहारा है नारी का, उसके बाद पुत्र कहलाता
पिता व बन्धु आश्रय तीजा, चौथा कोई नहीं आसरा

आप तो मेरे हैं ही नहीं, पुत्र भी वन गया है भेजा
बन्धु-बांधव दूर बहुत, मुझे, हर भांति से आपने मारा

यह राष्ट्र व अन्य राज्य भीइसी निर्णय से विनष्ट हुए हैं 
मंत्री सहित प्रजा भी पीड़ित, भरत व कैकेयी ही खुश हैं

अति विचलित हुए तब राजा, रानी ने कटु वचन सुनाया
स्मरण हुआ इक दुष्कर्म का, जिस कारण था यह दुःख पाया

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एकसठवाँ सर्ग पूरा हुआ.




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