क्या हो मन पीला हो जाये
पीला पत्ता डाल से बिछुड़ा
ले गयी पवन उड़ाये
क्यों न मन पीला हो जाये !
हुआ पीला पत्ता बैरागी
निज घर की ममता त्यागी,
नव पल्लव के स्वागत में
उड़ा खुशी से बड़भागी !
वीतरागी यदि मन पाखी भी
मुक्त गगन में दौड़ लगाये
क्या हो मन पीला हो जाये ?
हल्का होकर वन-वन डोले
अम्बर कभी धरा सँग होले
स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
नव निर्माण की भाषा बोले !
सुख-दुःख की भट्टी में तपकर
जग से जगातीत हो जाये
क्यों न मन पीला हो जाये ?
अनिता निहालानी
१२ अप्रैल २०११
स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
ReplyDeleteनव निर्माण की भाषा बोले !
उक्त पंक्तियाँ बहुत ही सुन्दर लगी, साधुवाद.
हल्का होकर वन-वन डोले
ReplyDeleteअम्बर कभी धरा सँग होले
स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
नव निर्माण की भाषा बोले !
भावों को अच्छी अभिव्यक्ति , बधाई
हल्का होकर वन-वन डोले
ReplyDeleteअम्बर कभी धरा सँग होले
स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
नव निर्माण की भाषा बोले !
सुन्दर शब्द विन्यास के साथ सुन्दर भाव !
बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteअनीता जी, इस सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
ReplyDelete............
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ReplyDeleteहल्का होकर वन-वन डोले
ReplyDeleteअम्बर कभी धरा सँग होले
स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
नव निर्माण की भाषा बोले !
सुख-दुःख की भट्टी में तपकर
जग से जगातीत हो जाये
क्यों न मन पीला हो जाये ?
Bahut hi badhiya vchitrankan