श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्टादशाधिकशततम: सर्ग:
सीता अनसूया संवाद, अनसूया का सीता को प्रेमोपहार देना तथा
अनसूया के पूछने पर सीता का उन्हें अपने स्वयंवर की कथा सुनाना
धर्मज्ञ और वीर क्षत्रिय, मिथिला जनपद के नरेश जनक
सदा पृथ्वी का पालन करते, रह तत्पर अति न्यायपूर्वक
एक समय भू यज्ञ योग्य, हल लिए हाथ में जोत रहे थे
इसी समय मैं प्रकट हुई थी, पुत्री माना मुझे उन्होंने
औषधियों को लेकर मुट्ठी में, उस क्षेत्र में बो रहे थे
धूल भरी मैं पड़ी दिखायी, अचरज हुआ देखकर उन्हें
उनके कोई संतान नहीं थी, स्नेहवश मुझे गोद उठा
‘यह मेरी पुत्री है’ कहकर, दुलार ह्रदय का उँडेल दिया
तभी हुई आकाशवाणी, यह धर्मत: तुम्हारी ही पुत्री
पाकर मुझे बहुत हर्षित थे, मानो महान समृद्धि पा ली
पुण्य कर्मणा बड़ी रानी को, सौंप डाला मुझे उन्होंने
लालन-पालन किया भाव से, मातृ स्नेहमय उचित ढंग से
हुई विवाह के योग्य अवस्था, चिंता में पड़ गये राजा
जैसे धन के खो जाने से, निर्धन को अतीव दुख होता
चाहे भू पर हो इंद्र समान, कन्या के पिता को जग में
अनादर सहना ही पड़ता, अक्सर वरपक्ष के लोगों से
अपमान सहन करने का काल, निकट आ गया है जान कर
चिंता के सागर में डूबे, नहीं जा सके उसे पार कर
मुझे अयोनिजा कन्या समझकर, योग्य और सुंदर पति का
किया करते वह नित्य विचार, निश्चय दृढ़ पर नहीं हुआ था
इसी तरह चिंता में रत रह, किया निश्चय उन्होंने आख़िर
पुत्री का स्वयंवर करूँगा, निर्णय लिया था कुछ सोचकर
उन्हीं दिनों महात्मा वरुण ने, दिव्य धनुष इक भेंट किया था
अक्षय बाणों से भरा हुआ, साथ ही तरकस भी युक्त था
बहुत सुंदर भक्तिमय रचना,आदरणीया शुभकामनाएँ
ReplyDeleteस्वागत व आभार मधुलिका जी !
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