श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्टादशाधिकशततम: सर्ग:
सीता अनसूया संवाद, अनसूया का सीता को प्रेमोपहार देना
तथा अनसूया के पूछने पर सीता का उन्हें अपने स्वयंवर की कथा सुनाना
धनुष बहुत अधिक भारी था, कोई उसे हिला नहीं पाया
स्वप्न में भी उठा ना पाये, भूमंडल के सारे राजा
कहा सत्यवादी पिता ने, सभी राजाओं के समूह में
इसकी प्रत्यंचा जो चढ़ा दे, पुत्री सीता वरेगी उसे
अपने भारी वजन के कारण, पर्वत जैसे इस धनुष को
कर प्रणाम सभी चले गये, उसे हिलाने में असमर्थ हो
तदन्तर दीर्घकाल पश्चात, महातेजस्वी रघुकुल नंदन
यज्ञ देखने मिथिला आये, साथ विश्वामित्र व लक्ष्मण
मुनि ने कहा पिता से मेरे, हैं दशरथ पुत्र राम,लक्ष्मण
देव प्रदत्त उस दिव्य धनुष के, करना चाहते ये दर्शन
पिताजी ने वह दिव्य धनुष, उन्हें दिखाने हेतु मँगवाया
पलक झपकते श्रीराम ने, चढ़ा प्रत्यंचा धनुष उठाया
वेगपूर्वक उसे खींचते, दो टुकड़ों में हुआ विभाजित
बड़ा भयंकर शब्द हुआ था, मानो वज्र हुआ विखंडित
तब सत्यप्रतिज्ञ पिता ने, लेकर जल का पात्र हाथ में
दे देने का उद्योग किया था, मुझे हाथ में श्रीराम के
अपने पिता राजा दशरथ के, अभिप्राय को जाने बिना
राजा जनक के देने पर, मुझे उन्होंने ग्रहण नहीं किया
उनकी अनुमति ले पिता ने, मेरा कन्यादान किया था
छोटी बहन उर्मिला का हाथ, लक्ष्मण के हाथ दिया था
इस प्रकार स्वयंवर में मुझे, राम के हाथ में सौंपा था
बलवानों में श्रेष्ठ राम को, निशदिन ही मैंने प्रेम किया
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में
एक सौ अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.
यह पढ़ कर बहुत अच्छा लगा!
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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