श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
एकाशीतितमः
सर्गः
प्रातःकल
के मंगलवाद्य घोष को सुनकर भरत का दुखी होना और उसे बंद कराकर विलाप करना,
वसिष्ठजी का सभा में आकर मंत्री आदि को बुलाने के लिए दूत भेजना
अभ्युदय सूचक उस
रात्रि का, अल्प भाग ही रहा शेष जब
करने लगे थे स्तवन
भरत का, मंगल स्तुति से सूत-मागध
बजी दुन्दुभि स्वर्ण
दंड से, प्रहर समाप्ति को सूचित करने
घोष वाद्यों का गूँजा,
बजने
लगे शंख, कई बाजे
पूर्ण गगन को करे व्याप्त जो,
तुमुल
नाद जब सुना भरत ने
नींद खुली उस ध्वनि
को सुनकर, जलने लगे पुनः
शोकाग्नि में
'नहीं नरेश मैं' कहकर उनको, बंद कराया तुरंत भरत ने
कैकेयी ने अपकार किया है, वचन कहे ये शत्रुघ्न से
बोझ दुखों का डालके मुझपर, स्वर्गलोक को गये हैं राजा
बिन नाविक की नौका जैसी, राजलक्ष्मी हुई है विधवा
स्वामी व सरक्षक हैं जो, उन राम को मेरी माँ ने
भेज दिया है घोर वनों में, सद्धर्म को तिलांजलि दे
देख विलाप भरत का दारुण, सभी स्त्रियाँ रनिवास की
दीनभाव से फूट-फूटकर, आतुर हुईं रोने लगीं थीं
राजधर्म के जो ज्ञाता थे, महायशस्वी महर्षि वसिष्ठ ने
उसी समय प्रवेश किया था, नृप दशरथ
के सभा भवन में
बना सुवर्ण का था अधिकांश, लगे हुए थे स्वर्ण स्तम्भ
सभा रमणीय शोभा पाती, देवों की सुधर्मा सभा सम
वेदों के ज्ञाता वशिष्ठ ने, शिष्यों संग प्रवेश किया
सुवर्ण पीठ पर आकर बैठे, दूतों से यह वचन कहा
शांतभाव से तुम सब जाकर, शीघ्र बुलाओ ब्राह्मणों को
क्षत्रियों, व योद्धाओं संग, आओ लेकर अमात्यों को
भरत, शत्रुघ्न, सब राजकुमार, मंत्री युधाजित व सुमंत्र को
है आवश्यक कार्य हमें उनसे, बुला के लाओ शीघ्र सभी को
कोलाहल आरम्भ हुआ तब, घोड़े, हाथी व रथों का
किया भरत का स्वागत सबने, करें देवता ज्यों इंद्र का
तिमी मछली, जलहस्ती जिसमें, स्थिर जल व मुक्ता से युक्त
शंख, बालुका युक्त सिन्धु सम, भरत से सभा हुई थी शोभित
इस
प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इक्यासीवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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