श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकसप्ततितम: सर्ग:
रथ और सेनासहित भरत की यात्रा, विभिन्न स्थानों को पार करके
उनका उज्जिहाना नगरी के उद्यान में पहुंचना और सेना को धीरे-धीरे आने की आज्ञा दे
स्वयं रथ द्वारा तीव्र वेग से आगे बढ़ते हुए सालवन को पार करके अयोध्या के निकट
जाना, वहाँ से अयोध्या की दुरवस्था देखते हुए आगे बढ़ना और सारथि से अपना दु:खपूर्ण
उद्गार प्रकट करते हुए राजभवन में प्रवेश करना
देख सामने पुरी अयोध्या, भरत सारथि से तब बोले
नहीं प्रसन्न दिखाई देती, शोभित नगरी उद्यानों से
जहाँ निवास करते गुणवान, वेदों के पारंगत ब्राह्मण
धनियों की भी बस्तियाँ यहाँ, राजा दशरथ करते पालन
वही अयोध्या दीख रही है, मिटटी के ढूह की भांति
तुमुलनाद नर-नारी का, देता नहीं है आज सुनाई
संध्या समय उद्यानों में, यहाँ निवासी क्रीड़ा करते
किन्तु आज सूने लगते हैं, परित्यक्त हो वे रोते से
जंगल सी जान पड़ती पुरी, अश्व, गज सवार नहीं दिखते
आते-जाते श्रेष्ठ मनुष्य, यात्री कहीं नजर नहीं आते
मदमत्त भ्रमरों से पहले, जो उद्यान भरे रहते थे
प्रेमीजन के प्रेम-मिलन हित, जो अनुकूल नजर आते थे
आज सुख शून्य लगते हैं, वृक्ष मानो क्रन्दन हैं करते
रागयुक्त कलरव खगों के, अब तक नहीं सुनाई देते
चंदन व अगरू की गंध से, युक्त समीर नहीं बहता है
भेरी, मृदंग, मधुर वीणा, शब्द क्यों जाने बंद हुआ है
देख अनिष्टकारी अपशकुन, खिन्न हो रहा है मन मेरा
सकुशल नहीं हैं बांधव मेरे, ऐसा ही प्रतीत हो रहा
हृदय शिथिल हुआ भरत का, अति डरे हुए, थीं क्षुब्ध इन्द्रियाँ
इसी अवस्था में उन्होंने, अयोध्या में प्रवेश किया
पश्चिम में वैजयन्त मार्ग से, घबराए से भीतर आये
द्वारपालों ने किया तब स्वागत, सारथि से ये वचन कहे
उतावली से मुझे बुलाया, अशुभ की आशंका मन में
दीनता रहित स्वभाव भी मेरा, भ्रष्ट हुआ है निज स्थिति से
राजाओं के विनाश के लक्षण, अब से पहले सुन रखे थे
घटित होते अपने सम्मुख, देख रहा हूँ उन्हें आज
मैं
झाड़ू नहीं लगी घरों में, रूखे और श्रीहीन लगते हैं
द्वार खुले हैं सुगंध से वंचित, भोजन आदि नहीं बने हैं
प्रभाहीन दिखाई देते घर, लक्ष्मी का निवास नहीं है
बलिवैश्वदेव कर्म न होते, पहले सी शोभा नहीं है
मन्दिर सजे नहीं फूलों से, देवों की पूजा नहीं होती
यज्ञ कर्म भी नहीं चल रहे, बाजारों में सामान नहीं
व्यापारी भी दीन लग रहे, चिंता से वे ग्रस्त लग रहे
देवालयों, वृक्षों के वासी, पशु-पक्षी भी दीन लग रहे
स्त्री-पुरुषों के मुख मलिन हैं, अश्रु भरे उनकी आँखों में
उत्कंठित, चिंतित, दुर्बल हैं, दीन लग रहे सब के सब वे
सारथि से ऐसा कहकर, अपशकुनों को देख भरत
मन ही मन दुखी होते, गये राजमहल के भीतर
इंद्र की नगरी सम शोभित, जो अयोध्या नगरी पहले
आज देख दुर्दशा उसकी, दुःख में भरत निमग्न हो गये
पहले कभी नहीं हुईं थीं, उन बातों को हुआ देख घटित
मस्तक झुका लिया भरत ने, दीन-हृदय से हुए प्रवेशित
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के
अयोध्याकाण्ड में इकहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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