श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
द्विसप्ततितमः सर्गः
भरत का कैकेयी के भवन में जाकर उसे प्रणाम करना, उसके
द्वारा पिताके परलोकवास का समाचार पा दुखी हो विलाप करना तथा श्रीराम के विषय में
पूछने पर कैकेयी द्वारा उनका श्रीराम के वनगमन के वृत्तांत से अवगत होना
पितृगृह में न देखा पिता को, माता के घर गये भरत तब
देख पुत्र को भरी हर्ष से, खड़ी हो गयी वह आसन तज
श्रीहीन सा महल को पाया, जब उसमें प्रवेश था किया
माता के शुभ चरणों का फिर, झुककर भरत ने स्पर्श किया
मस्तक सूँघा, लगा हृदय से, निकट बिठा कर उनसे पूछा
बीतीं कितनी रात्रि मार्ग में, नाना गृह से निकले, बेटा !
अति शीघ्रता से तुम आये, क्या बहुत थकावट हुई तुम्हें
नाना, मामा सकुशल तो हैं, मुझे बताओ सारी बातें
प्रिय वाणी में पूछा माँ ने, दिया जवाब दशरथ नंदन ने
रात सातवीं बीती है यह, चला था जब नाना के घर से
कुशल से हैं नाना व मामा, विदा किया मुझे धन आदि दे
नहीं अभी तक पहुँचे हैं वे, वाहन थके भार से उनके
दूतों ने मचायी जल्दी, राजकीय संदेश जो लाये
पहले ही चला आया हूँ मैं, इसीलिए शीघ्रता करके
अच्छा माँ ! अब जो मैं पूछूँ, उत्तर दो शीघ्र तुम उसका
हर्षित नहीं हैं क्यों परिजन, सूना क्यों है पलंग तुम्हारा
जिनके दर्शन की इच्छा है, पिता कहाँ हैं, मुझे बताओ
उनके चरण मुझे छूने हैं, क्या माँ कौसल्या के घर हैं ?
घोर अप्रिय इस समाचार को, प्रिय समझ कर लगी बताने
राज्य लोभ से अति मोहित थी, कैकेयी बोली भरत से
महात्मा थे पिता तुम्हारे,
आश्रयदाता भी सत्पुरुषों के
इक दिन जो गति होती सबकी, उसी गति को प्राप्त हुए वे
धार्मिक कुल में भरत जन्मे थे, शुद्ध अति हृदय था उनका
पितृ शोक से गिरे भूमि पर, माता की सुन बात वह सहसा
‘मारा गया मैं’, दीन वचन यह, कहने लगे हो दुःख से आतुर
महापराक्रमी लगे लोटने, पटक बाजुओं को धरती पर
हुई भ्रांत चेतना उनकी, चित्त हुआ अति व्याकुल दुःख से
दुःख से भरे वचन बोलते, कर स्मरण विलाप करते थे
सुशोभित होती थी यह शय्या, शरद काल के निर्मल नभ सी
बिना चन्द्रमा के
गगन ज्यों, श्री हीन है शुष्क सिंधु सी
सुंदर मुख वस्त्र में ढककर, कंठस्वर संग अश्रु गिराकर
गिर भू पर विलाप करते थे, मन ही मन अति पीड़ित होकर
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