श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्टादशः सर्गः
श्रीराम का कैकेयी से पिता के चिंतित होने का कारण पूछना और कैकेयी का कठोरतापूर्वक अपने मांगे हुए वरों का वृत्तांत बताकर श्रीराम को वनवास के लिए प्रेरित करना
महल में जाकर श्रीराम ने, देखा पिता को दुःख में डूबे
सुंदर आसन, संग कैकेयी, थे दयनीय से वे बैठे
सूख गया था मुख उनका, किया राम ने नम्र प्रणाम
सावधान हो उसके बाद, कैकेयी को भी किया नमन
दीनदशा में पड़े राजा ने, राम ! कहा फिर चुप हो गये
देख सके न उनसे बोले, आँखों में अश्रु भर आये
राजा का वह रूप देखकर, श्रीराम भी हुए भयभीत
जैसे किसी सर्प को छुआ, व्यथित हो गया उनका चित्त
राजा की इन्द्रिय थीं व्याकुल, शोक और संताप से दुर्बल
लंबी श्वासें भरते थे वे, चित्त अति था उनका व्याकुल
सागर जैसे क्षुब्ध हो गया, सूर्य को ग्रहण लगा राहु का
ऐसे दुखी दीख पड़ते थे, महर्षि ने ज्यों झूठ बोला हो
क्या कारण हो सकता इसका, श्रीराम न सोच सके
पूर्णिमा के समुद्र की भांति, वे अत्यंत विक्षुब्ध हो उठे
पिता के हित में जो थे तत्पर, लगे सोचने दुःख का कारण
आज ही ऐसी बात हुई क्या, पिता न बोलें हो प्रसन्न
कुपित हुए भी अन्य दिन तो, सुख से जो जाते थे भर
आज क्लेश क्यों होता इनको, मेरी ओर दृष्टिपात कर
यह सोचकर दीन हो गये, शोक से कातर, मुख फीका
कर प्रणाम तब कैकेयी को, उनसे ही कारण पूछा
माँ, मुझसे अनजाने में ही, क्या कोई अपराध हो गया
कुपित हुए पिता क्या मुझसे, दो इनको अब तुम्हीं मना
सदा प्यार करते थे मुझसे, आज दुखी क्यों लगते हैं
छाया है विषाद मुखड़े पर, मुझसे नहीं बोलते हैं
क्या कोई व्याधि तन की, या मन चिंता सताती इनको
ऐसा प्रायः होता दुर्लभ, सुख ही सुख मिले मानव को
भरत, शत्रुघ्न या माताएं, क्या किसी का हुआ अमंगल
महाराज को दुःख देकर, जीना चाहूँ न मैं पल भर
जिसके कारण हुआ जन्म वह, पिता देवता है प्रत्यक्ष
जीते जी उसे दुःख देगा, जग में क्यों कोई मानव
अभिमान या रोषपूर्वक, तुमने ही तो कुछ नहीं कहा
सच्ची बात पूछता तुमसे, क्यों इनका मन दुःखी हुआ
किस कारण आया संताप, पहले कभी नहीं देखा
कैकेयी ने कहे वचन तब, जब राम ने उससे पूछा
नहीं कुपित हैं राजा, राम !, न ही कोई कष्ट हुआ
मन में कोई बात है इनके, बोल न पाते भय तुम्हारा
तुम हो प्रिय, अप्रिय बात, तुमसे न कह पाते ये
की प्रतिज्ञा मेरे सम्मुख, पूर्ण जिसे करना है तुम्हें
पहले तो करके सत्कार, मुंह माँगा दिया वरदान
अब गँवार जनों की भांति, करते हैं यह पश्चाताप
‘मैं दूंगा’ कह ऐसा, दे वर, अब उसका निवारण करते
निकल गया जो पानी उसको, बाँध बनाकर अब रोकते
सत्य ही है मूल धर्म का, सत्पुरुषों का यह है निश्चय
ऐसा न हो सत्य त्याग दें, राम ! तुम्हारे कारण यह
यदि राजा जो कहना चाहें, शुभ हो चाहे अशुभ वह बात
यदि उसका पालन करो तुम, कहूँ तभी मैं पुनः वह बात
यदि नष्ट न हो वह बात, आज्ञा पालन करो तुम उनकी
स्वयं तो ये कुछ न कहेंगे, किन्तु मैं सब तुम्हें कहूँगी
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