Monday, December 6, 2010

भावांजलि

तुम युग युग से बाट जोहते
पुष्पों हारों से ढके हुए,
तुमको चाहे कोई ऐसा हो
सब इच्छाओं से भरे हुए !

तुमसे बस तुमको ही माँगूं
मैं दीन, लिये आतुर अंतर,
पर कैसे उर की कहूँ व्यथा
अनगिन दोषों से भरा भीतर !


इस जग में आने का हेतु
अब पूर्ण हुआ, तुम आओगे !
अपने उस दिव्य लोक में
कब, सँग मुझे ले जाओगे ?

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना |
    बहुत - बहुत शुभकामना

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  2. kyaa baat hai....bhut hi sundar kaavya rachna.,.."kaavyakash se bas bhavanjali ki bunde hi dhara ko santust karti hai,aapki kaavya rachna janmanas ke hriday ko bas do pal me aasakt karti hai"

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  3. बेहतरीन भाव पिरोये हैं आपने,

    "पर कैसे उर की कहूँ व्यथा
    अनगिन दोषों से भरा भीतर"

    सुन्दर रचना, आपका आत्मीय आभार.

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