Wednesday, November 20, 2024

श्रीराम, लक्ष्मण और सीताका शरभङ्ग मुनि के आश्रम पर जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

पञ्चम: सर्ग:


श्रीराम, लक्ष्मण और सीताका शरभङ्ग मुनि के आश्रम पर जाना,

देवताओं का दर्शन करना

और मुनि से सम्मानित होना तथा शरभङ्ग मुनि का ब्रह्मलोक-गमन  


वध कर बलशाली विराध का, सीता को ह्रदय से लगाया 

 सांत्वना दी राम ने उनको, लक्ष्मण को यह वचन सुनाया 


कठिन वन अति कष्टकारी है, ऐसे वन में नहीं रहे हैं 

 अब चलें निकट शरभङ्ग मुनि के, तप से शुद्ध देव तुल्य हैं 


 मुनि के आश्रम जब वे पहुँचे, अद्भुत दृश्य राम ने देखा

आसमान में रथ पर बैठे, दर्शन पाया इंद्र देव का 


 सूर्य और अग्नि के समान थी, इंद्र देव की अंगकान्ति

उनके पीछे अन्य देव थे, निर्मल वस्त्र, आभूषण धारी


उन जैसे ही कई महात्मा, इंद्रदेव की पूजा करते 

निकट से उस रथ को देखा, हरे रंग के घोड़े जुते थे 


श्वेत बादलों सा उज्ज्वल, निर्मल छत्र भी तना हुआ था 

विचित्र पुष्पहार से शोभित, सूर्य समान प्रतीत होता था 


सुवर्णमय डंडे वाले दो, चंवर और व्यजन भी देखे 

जिनको लेकर दो सुन्दरियाँ, डुला रहीं थीं शुभ मस्तक पे 


कई गंधर्व, देव, सिद्ध संग, महर्षि गण उत्तम वचन से

इन्द्रदेव की स्तुति करते, जो मुनि से वार्तालाप कर रहे  


इस प्रकार इंद्र दर्शन कर, उसे  दिखाने हेतु भाई को

श्रीराम ने अपनी उँगली से, संकेत किया उस ओर को    


आकाश में अद्भुत रथ देखो, अग्नि लपटें निकल रही हैं 

शोभा मानो मूर्तिमती हो, उसकी नित सेवा करती है 


उनके दिव्य अश्वों के विषय में, जैसा हमने सुन रखा है 

निश्चय ही नभ में वैसे ही, दिव्य अश्व विराजमान हैं 



Sunday, November 10, 2024

श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध का वध

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

 चतुर्थ सर्ग:


श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध का वध 


जब मैंने विनती की उनसे, की चेष्टा प्रसन्न करने की 

 बोले महायशस्वी कुबेर,  शाप मुक्त करेंगे राम ही 


दशरथ नंदन श्रीराम जब, युद्ध में वध तुम्हारा करेंगे

तब पहले स्वरूप को पाकर, स्वर्गलोक को प्राप्त करोगे 


 मैं रम्भा में था अति आसक्त, समय पर पहुँच नहीं पाया 

शाप दिया कुपित कुबेर ने, मुक्ति उपाय भी साथ बताया 


आज आपकी ही कृपा से, भीषण शाप से मुक्त हुआ हूँ 

हो कल्याण आपका रघुवर, अब मैं स्वर्गलोक जाता हूँ 


इस वन से डेढ़ योजन दूर, महामुनि शरभंग हैं रहते 

उनके पास शीघ्र जाइए, वह कल्याण की बात कहेंगे 

  

गड्ढे में गाड़कर यह काया, आप शीघ्र यहाँ से जायें 

मृत राक्षसों को दफ़नाना, सनातन धर्म है उनके लिए


जो राक्षस दबाए जाते, उन्हें सनातन लोक मिलता है 

श्रीराम से ऐसा कहकर वह, शरीर छोड़कर चला गया 


उसकी बात सुन कर राम ने, लक्ष्मण को फिर से दी आज्ञा 

लेकर फावड़ा तब लक्ष्मण ने, निकट विशाल गह्वर खोदा 


तब अति भयानक ध्वनि निकाली, कंठ को छोड़ा जब राम ने

खूँटे जैसे कान थे जिसके, डाल दिया उसे गह्वर में 


अति पराक्रमी व धैर्यवान थे, दोनों  भाई राम-लक्ष्मण 

क्रूर कर्म करने वाले महा, राक्षस का किया था मर्दन 


गढ्ढे को मिट्टी से पाटा, उस राक्षस का वध कर डाला 

जिसे श्रीराम के हाथों से, हठपूर्वक मरना अभीष्ट था


हो मनोवांछित मृत्यु की प्राप्ति, बता दिया था श्रीराम को 

शस्त्र से वध नहीं हो सकता, इसीलिए खोदा गड्ढे को 


निर्भय होकर फिर उस वन में, वे हर्षित  विचरा करते थे 

जैसे  नभ में सूर्य, चंद्रमा, वैसे ही शोभा पाते थे 



 इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्डमें चौथा सर्ग पूरा हुआ।  


Wednesday, November 6, 2024

श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध का वध

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


 चतुर्थ सर्ग:


श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध का वध 


रघुकुल के श्रेष्ठ वीरों को, ले जाते देखा सीता ने 

दोनों बाँहें ऊपर करके, अति विलाप लगीं वह करने


सत्यवादी, शीलवान हैं, विचार वान भी दशरथ नंदन

संग दोनों को क्यों ले जाते,  रौद्ररूप धर महाराक्षस


राक्षस ! तुम्हें नमन करती मैं, जीवित नहीं बचूँगी वन में 

त्याग कर इन दो वीरों का, अपने संग ले चलो तुम मुझे  


विदेहनंदिनी सीता जी की, भाइयों ने जब बात सुनी

करने लगे अति शीघ्रता, वे दोनों उस राक्षस के वध की 


लक्ष्मण ने बायीं बाँह तोड़ी, बल से श्रीराम ने दायीं 

मेघ समान श्याम वह राक्षस, अतीव व्याकुल हो हुआ दुखी 


वज्र के द्वारा टूटे शिखर सा, गिर पड़ा था वह भूमि पर 

तब आघात किया लातों से, मुक्कों व भुजाओं से उस पर 


कई बाणों से घायल करके, तलवार से क्षत-विक्षत कर  

पृथ्वी पर रगड़ा जाने पर, मारा नहीं जा सका राक्षस 


अवध्य और विशाल पर्वत सम, बार-बार विराध को देख 

सदा अभय का दान करते जो, कही राम ने बात विशेष 


तपस्या से वरदान प्राप्त कर, राक्षस यह अवध्य हुआ है

शस्त्र से मारा नहीं जा सकता, भू में इसको हम गाड़ दें 


हाथी के समान भयंकर, रौद्र तेज धारी यह राक्षस 

यही एक उपाय शेष है, एक गड्ढ खोदो तुम लक्ष्मण 


लक्ष्मण को यह आज्ञा देकर, राम ने अपने एक पैर से 

विराध का गला दबाया, तभी कहा यह वचन विराध ने 


इंद्र समान है बल आपका ! मोहवश मैं पहचान न सका 

माँ कौसल्या धन्य हुई हैं, आपसे मैं मारा अब गया 


महाभागा यह सीता जी हैं, यह आपके छोटे भाई 

आप ही श्री रामचंद्र हैं, यह समझ जरा देर से आयी 


मैं तुंबरू नामक गंधर्व, मुझको कुबेर का शाप मिला 

उसी शाप के कारण यहाँ, भयंकर योनि में आना पड़ा


Wednesday, October 30, 2024

विराध का दोनों भाइयों को साथ लेकर दूसरे वन में जाना


।। श्री सीतारामचंद्राभ्यां नम: ।।

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् 

अरण्य कांडम् 


तृतीय सर्ग:


विराध और श्रीराम की बातचीत, श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध पर प्रहार तथा विराध का इन दोनों भाइयों को साथ लेकर दूसरे वन में जाना 


तत्पश्चात वन गुंजाते, पूछा विराध ने, कौन हो तुम?

मुझसे कहो , कहाँ जाओगे ? सुन कर उत्तर दिया राम ने 

 

सदाचार का पालन करते, इक्ष्वाकु कुल के महा क्षत्रिय 

कारणवश वन में रहते हैं, अब तुम भी दो अपना परिचय 


यह सुनकर बोला विराध यह, सत्य पराक्रमी श्रीराम से

रघुवंशी नरेश सुनो तुम, हर्षित हुआ देता हूँ परिचय 


जव नामक राक्षस का पुत्र हूँ, शतहृदा मेरी माता है 

भू के सभी राक्षसों द्वारा, विराध मुझे कहा जाता है  


मैंने भीषण तप के द्वारा, वर पाया है ब्रह्मा जी से 

हूँ अवध्य, अभेद्य जगत में, मर सकता नहीं किसी शस्त्र से 


अब तुम दोनों इस युवती को, यहीं छोड़ दूर चले जाओ 

प्राण नहीं लूँगा तुम्हारे, इसे पाने की इच्छा त्यागो 


पापपूर्ण बात यह सुनकर, तब श्रीराम भर गये क्रोध से 

विकट राक्षस महा विराध से, आँखें लाल किए वे बोले 


धिक्कार तुझे ओ नीच, तेरा अभिप्राय बहुत खोटा है 

शीघ्र युद्ध में तू पाएगा, मृत्यु स्वयं की  खोज रहा है


जीवित नहीं बचेगा अब तू, कहा राम ने बाण चढ़ाया 

तीखा बाण कर अनुसंधान, सात बार उस पर बरसाया 


प्रज्वलित अग्नि के समान थे, तेजस्वी मोर पंख वाले 

रक्तरंजित हो गिरे भूमि पर, तन को भेद विराध के वे


घायल हो जाने पर उसने, अलग बिठाया था सीता को 

स्वयं हाथ में ले शूल, दोनों भाइयों पर टूट पड़ा था 


इन्द्रध्वज सम लेकर त्रिशूल, बड़े ज़ोर से करी गर्जना

महा भयंकर दुष्ट राक्षस, काल समान शोभा पाता था 


काल, अंतक, औ' यम की भाँति, बाणों की वर्षा की उस पर 

अट्टाहस कर खड़ा हुआ, जँभाई संग अंगड़ाई लेकर 


वरदान के बल से उसने, अपने प्राणों को रोक लिया था 

बाण गिर गये भूमि पर तन से, शूल उठा आक्रमण किया 


वज्र और अग्नि सम प्रज्वलित, चमक उठा वह शूल गगन में 

किंतु काट डाला बाणों से, बलवानों  में श्रेष्ठ राम ने 


मेरु पर्वत के शिला खंड सा, छिन्न भिन्न हो गिरा भू पर 

काले सर्पों सी तलवारें ले, दोनों टूट पड़े उस पर 


उस आघात से घायल होकर, दोनों को पकड़ना चाहा 

उसके अभिप्राय को जानकर, श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा 


अपनी इच्छा से यह राक्षस, हम दोनों को ढो ले जाये 

जिस मार्ग से यह जाता है, वही हमारा मार्ग बन जाये 


बल से उद्दंड बन विराध ने, काँधे पर बिठा दोनों को 

करता हुआ भीषण गर्जना, चलने लगा वन की ओर को 


प्रवेश किया घने एक  वन में, मेघों की घटा सा नीला 

बड़े वृक्ष, अनेक पक्षी थे, हिंसक पशुओं से भरा हुआ 



 इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्डमें तीसरा सर्ग पूरा हुआ।  



 


Friday, September 27, 2024

वन के भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीतापर विराध का आक्रमण



।। श्री सीतारामचंद्राभ्यां नम: ।।


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् 


अरण्य कांडम् 

द्वितीय सर्ग: 


वन के भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीतापर विराध का आक्रमण 


रात्रि काल में महर्षियों का, सुखद आतिथ्य स्वीकार किया 

सूर्योदय जैसे हुआ, श्रीराम ने आगे प्रस्थान किया 


वन के मध्य एक स्थल देखा, पथ में जाते समय उन्होंने

रीछ व वानर वहाँ रहते थे, व्याप्त हो रहा था मृगों से  


पादप  लता, झाड़ियाँ वहाँ की, नष्ट-भ्रष्ट हुई लगती थीं 

किसी जलाशय के होने की, संभावना नहीं लगती थी 


झींगुर की झंकार गूँजती, पक्षी का स्वर भी आता था 

जंगली पशु से भरा जंगल, नरभक्षी राक्षस रहता था 


उच्च स्वर से गर्जन करता, पर्वतशिखर समान ऊँचा था 

आँखें गहरी, मुख अति विशाल, रूप विकट, पेट भी बड़ा था 


 देखने में था बड़ा भयंकर, बेडौल, विकृत लगता था 

रक्त-मांस से भीगा चर्म, उसने धारण किया हुआ था 


प्राणियों को दुख देने वाला, यमराज की भाँति खड़ा था 

लोहे के शूल में उसने, कई पशुओं को गाँठ रखा था 


तीन सिंह और चार बाघ, दो भेड़िये, दस हिरण व हाथी 

इतने पशु मार डाले थे, अति भयानक दहाड़ थी उसकी 


राम, लक्ष्मण सीता को देख, क्रोध से भरा लगा दौड़ने 

जैसे प्राणांतकारी काल, प्रजा की ओर अग्रसर होवे 


  सीता को उठाया उसने, कुछ दूरी पर खड़ा हो गया 

क्रोध में भरकर वह राक्षस, फिर दोनों भाइयों से बोला 

  

जटा-चीर धारण करके भी, एक स्त्री के साथ रहते हो 

धनुष-बाण तलवार लिए फिर , दंडक वन में घुस आये हो 


 ऐसा मुझे जान पड़ता है, जीवन क्षीण हो रहा तुम्हारा,

अधर्म-परायण, पापी हो, तपस्वियों का वेश है धारा  


Friday, September 20, 2024

श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का तापसों के आश्रममण्डल में सत्कार

।। श्री सीतारामचंद्राभ्यां नम: ।।


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् 

अरण्य कांडम्  

प्रथम: सर्ग:

श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का तापसों के आश्रममण्डल में सत्कार 


दंडक वन में किया प्रवेश, दुर्जय, वीर, बलवान राम ने 

तापस मुनियों के अनेक आश्रम, उस अरण्य में स्थित देखे 


कुश तथा वल्कल वस्त्र फैले थे, आश्रम थे पूर्ण सुरक्षित 

ऋषियों की ब्रह्मविद्या का, महातेज होता था प्रज्ज्वलित 


जैसे नभ में सूर्य मण्डल है, वैसे ही भू पर उपस्थित 

आँगन सदा स्वच्छ रहता था, सब प्राणी थे वहाँ सरंक्षित 


 बसे थे उसमें वन्य पशु भी, पक्षियों ने घेरा हुआ था 

बहुत मनोरम था प्रदेश वह, अप्सराओं का नृत्य स्थल था 


 उन आश्रमों के प्रति बहुत, मन में आदर का भाव भरा था 

स्वादिष्ट फल देने वाले,  वृक्षों से जंगल वह घिरा था 


बड़ी-बड़ी अग्निशालाएँ, यज्ञ पात्र, मृगचर्म, कुश समिधा 

जल से भरे कलश, फल-मूल, आश्रम की बढ़ाते थे शोभा 


बलिवैश्वदेव, होम से पूजित, वेद ध्वनि से गूँजा करता 

कमलपुष्प से शोभित सरोवर, फूलों का सुंदर बगीचा 


चीर व श्याम मृगचर्म पहन कर, फल-मूल पर रहने वाले 

जितेन्द्रिय, तेजस्वी मुनिजन, उस आश्रम में रहा करते थे 


नियमित जीवन शैली जिनकी, परम महर्षियों से सुशोभित 

ब्रह्मा जी के धाम की भाँति, आश्रम समूह वेद निनादित 


कई ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण भी, आश्रमों की शोभा बढ़ाते 

धनुष की प्रत्यंचा उतारी, देख तेजस्वी श्रीराम ने 


श्रीराम व सीता को देख, दिव्य ज्ञान से संपन्न मुनिजन 

बड़ी प्रसन्नता के साथ मिले, दिये अनेकों आशीर्वचन 


Tuesday, September 17, 2024

श्रीराम आदि का प्रातःकाल अन्यत्र जाने के लिए ऋषियों से विदा लेना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

एकोनविंशत्यधिकशततम: सर्ग:


अनसूया की आज्ञा से सीता का उनके दिये हुए आभूषणों को धारण करके श्रीरामजी के पास आना तथा श्रीराम आदि का रात्रि में आश्रम पर रहकर प्रातःकाल अन्यत्र जाने के लिए ऋषियों से विदा लेना 


माँ अनसूया ने सीता की, पूरी कथा सुनी हो हर्षित  

भरा अंक में सीता को कहा, मधुर प्रसंग अति है विचित्र 

 

मस्तक सूंघा, कहा फिर उनको, यद्यपि मन लगा है इसमें 

किंतु सूर्य अब अस्त हो गये, पंछी जा पहुँचे नीड़ों में 


जल से भीगे वल्कल पहने, कलश उठा वे लौट रहे हैं 

मुनिजन जो स्नान कर आये, तापस जिनके तन भी आद्र हैं 


अग्निहोत्र समाप्त कर लिया, मिलकर महर्षि अत्रि ने विधिवत् 

वायुवेग से उठा हुआ यह, धुँआ दिखायी दे श्यामवर्ण


चारों ओर जो वृक्ष दिख रहे, अंधकार में घने लग रहे 

भान दिशाओं का नहीं होता, चहुँओर निशाचर घूम रहे 


रात्रि सजी है नक्षत्रों से, तपोवन के सब  मृग सो गये

ज्योत्सना की ओढ़े ओढ़नी, चन्द्रदेव भी उदित हो गये 


अब जाओ श्रीराम के निकट, जाने की आज्ञा देती हूँ 

मधुर तुम्हारी बातों से मैं, अति प्रसन्न संतुष्ट हुई हूँ 


इससे पहले करो अलंकृत, स्वयं को इन दिव्य गहनों से 

 रहो सुशोभित धारण कर लो, वस्त्र दिये जो तुमको मैंने 


देवकन्या सम सीता ने, वस्त्राभूषण से शृंगार किया 

शीश झुका कर किया प्रणाम, श्रीराम हेतु प्रस्थान किया 


श्रीराम ने जब उन्हें देखा, दिव्य वस्त्र-आभूषण धारे 

हुए अति प्रसन्न देख वह, प्रेमोपहार थे अनसूया के 


जैसे  उन्हें प्राप्त हुए थे, सब विवरण सीता ने सुनाया 

दोनों भाई अति प्रसन्न थे, दुर्लभ स्नेह  सीता ने पाया 


चंद्रमुखी सीता के संग फिर, रात्रि वहीं विश्राम किया 

उषाकाल वनवासी मुनियों ने, अग्निहोत्र कर ध्यान किया 


अग्निहोत्र आदि के बाद, आज्ञा ली जाने की राम ने 

 राक्षसों से आक्रांत है मार्ग, धर्म परायण तापस बोले


उपद्रव करते ही रहते हैं, नरभक्षी राक्षस व पशु भी 

जो तपस्वी अकेले मिल जाता, खा जाते उसे वे सभी 


हिंसक जंतुओं व राक्षसों से, रक्षा करें आप हमारी 

मार भगायें अथवा रोकें, यह आपसे विनती  हमारी 


यही मार्ग है जिससे होकर, वन के भीतर मुनि जाते हैं 

फल-मूल लाने की ख़ातिर, यहीं से वे प्रवेश करते हैं 


हाथ जोड़ सभी ब्राह्मणों ने, मिलकर स्वस्ति वाचन किया था 

शत्रुहन्ता श्रीराम ने वन में, सीता संग प्रवेश किया  


तीनों जब वन में जाते थे, उन्हें देख ऐसा लगता था, 

घन की घटाओं में जैसे, सूर्यदेव ने प्रवेश किया था  


                                         

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.