।। श्री सीतारामचंद्राभ्यां नम: ।।
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अरण्य कांडम्
द्वितीय सर्ग:
वन के भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीतापर विराध का आक्रमण
रात्रि काल में महर्षियों का, सुखद आतिथ्य स्वीकार किया
सूर्योदय जैसे हुआ, श्रीराम ने आगे प्रस्थान किया
वन के मध्य एक स्थल देखा, पथ में जाते समय उन्होंने
रीछ व वानर वहाँ रहते थे, व्याप्त हो रहा था मृगों से
पादप लता, झाड़ियाँ वहाँ की, नष्ट-भ्रष्ट हुई लगती थीं
किसी जलाशय के होने की, संभावना नहीं लगती थी
झींगुर की झंकार गूँजती, पक्षी का स्वर भी आता था
जंगली पशु से भरा जंगल, नरभक्षी राक्षस रहता था
उच्च स्वर से गर्जन करता, पर्वतशिखर समान ऊँचा था
आँखें गहरी, मुख अति विशाल, रूप विकट, पेट भी बड़ा था
देखने में था बड़ा भयंकर, बेडौल, विकृत लगता था
रक्त-मांस से भीगा चर्म, उसने धारण किया हुआ था
प्राणियों को दुख देने वाला, यमराज की भाँति खड़ा था
लोहे के शूल में उसने, कई पशुओं को गाँठ रखा था
तीन सिंह और चार बाघ, दो भेड़िये, दस हिरण व हाथी
इतने पशु मार डाले थे, अति भयानक दहाड़ थी उसकी
राम, लक्ष्मण सीता को देख, क्रोध से भरा लगा दौड़ने
जैसे प्राणांतकारी काल, प्रजा की ओर अग्रसर होवे
सीता को उठाया उसने, कुछ दूरी पर खड़ा हो गया
क्रोध में भरकर वह राक्षस, फिर दोनों भाइयों से बोला
जटा-चीर धारण करके भी, एक स्त्री के साथ रहते हो
धनुष-बाण तलवार लिए फिर , दंडक वन में घुस आये हो
ऐसा मुझे जान पड़ता है, जीवन क्षीण हो रहा तुम्हारा,
अधर्म-परायण, पापी हो, तपस्वियों का वेश है धारा