Friday, September 27, 2024

वन के भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीतापर विराध का आक्रमण



।। श्री सीतारामचंद्राभ्यां नम: ।।


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् 


अरण्य कांडम् 

द्वितीय सर्ग: 


वन के भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीतापर विराध का आक्रमण 


रात्रि काल में महर्षियों का, सुखद आतिथ्य स्वीकार किया 

सूर्योदय जैसे हुआ, श्रीराम ने आगे प्रस्थान किया 


वन के मध्य एक स्थल देखा, पथ में जाते समय उन्होंने

रीछ व वानर वहाँ रहते थे, व्याप्त हो रहा था मृगों से  


पादप  लता, झाड़ियाँ वहाँ की, नष्ट-भ्रष्ट हुई लगती थीं 

किसी जलाशय के होने की, संभावना नहीं लगती थी 


झींगुर की झंकार गूँजती, पक्षी का स्वर भी आता था 

जंगली पशु से भरा जंगल, नरभक्षी राक्षस रहता था 


उच्च स्वर से गर्जन करता, पर्वतशिखर समान ऊँचा था 

आँखें गहरी, मुख अति विशाल, रूप विकट, पेट भी बड़ा था 


 देखने में था बड़ा भयंकर, बेडौल, विकृत लगता था 

रक्त-मांस से भीगा चर्म, उसने धारण किया हुआ था 


प्राणियों को दुख देने वाला, यमराज की भाँति खड़ा था 

लोहे के शूल में उसने, कई पशुओं को गाँठ रखा था 


तीन सिंह और चार बाघ, दो भेड़िये, दस हिरण व हाथी 

इतने पशु मार डाले थे, अति भयानक दहाड़ थी उसकी 


राम, लक्ष्मण सीता को देख, क्रोध से भरा लगा दौड़ने 

जैसे प्राणांतकारी काल, प्रजा की ओर अग्रसर होवे 


  सीता को उठाया उसने, कुछ दूरी पर खड़ा हो गया 

क्रोध में भरकर वह राक्षस, फिर दोनों भाइयों से बोला 

  

जटा-चीर धारण करके भी, एक स्त्री के साथ रहते हो 

धनुष-बाण तलवार लिए फिर , दंडक वन में घुस आये हो 


 ऐसा मुझे जान पड़ता है, जीवन क्षीण हो रहा तुम्हारा,

अधर्म-परायण, पापी हो, तपस्वियों का वेश है धारा  


Friday, September 20, 2024

श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का तापसों के आश्रममण्डल में सत्कार

।। श्री सीतारामचंद्राभ्यां नम: ।।


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् 

अरण्य कांडम्  

प्रथम: सर्ग:

श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का तापसों के आश्रममण्डल में सत्कार 


दंडक वन में किया प्रवेश, दुर्जय, वीर, बलवान राम ने 

तापस मुनियों के अनेक आश्रम, उस अरण्य में स्थित देखे 


कुश तथा वल्कल वस्त्र फैले थे, आश्रम थे पूर्ण सुरक्षित 

ऋषियों की ब्रह्मविद्या का, महातेज होता था प्रज्ज्वलित 


जैसे नभ में सूर्य मण्डल है, वैसे ही भू पर उपस्थित 

आँगन सदा स्वच्छ रहता था, सब प्राणी थे वहाँ सरंक्षित 


 बसे थे उसमें वन्य पशु भी, पक्षियों ने घेरा हुआ था 

बहुत मनोरम था प्रदेश वह, अप्सराओं का नृत्य स्थल था 


 उन आश्रमों के प्रति बहुत, मन में आदर का भाव भरा था 

स्वादिष्ट फल देने वाले,  वृक्षों से जंगल वह घिरा था 


बड़ी-बड़ी अग्निशालाएँ, यज्ञ पात्र, मृगचर्म, कुश समिधा 

जल से भरे कलश, फल-मूल, आश्रम की बढ़ाते थे शोभा 


बलिवैश्वदेव, होम से पूजित, वेद ध्वनि से गूँजा करता 

कमलपुष्प से शोभित सरोवर, फूलों का सुंदर बगीचा 


चीर व श्याम मृगचर्म पहन कर, फल-मूल पर रहने वाले 

जितेन्द्रिय, तेजस्वी मुनिजन, उस आश्रम में रहा करते थे 


नियमित जीवन शैली जिनकी, परम महर्षियों से सुशोभित 

ब्रह्मा जी के धाम की भाँति, आश्रम समूह वेद निनादित 


कई ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण भी, आश्रमों की शोभा बढ़ाते 

धनुष की प्रत्यंचा उतारी, देख तेजस्वी श्रीराम ने 


श्रीराम व सीता को देख, दिव्य ज्ञान से संपन्न मुनिजन 

बड़ी प्रसन्नता के साथ मिले, दिये अनेकों आशीर्वचन 


Tuesday, September 17, 2024

श्रीराम आदि का प्रातःकाल अन्यत्र जाने के लिए ऋषियों से विदा लेना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

एकोनविंशत्यधिकशततम: सर्ग:


अनसूया की आज्ञा से सीता का उनके दिये हुए आभूषणों को धारण करके श्रीरामजी के पास आना तथा श्रीराम आदि का रात्रि में आश्रम पर रहकर प्रातःकाल अन्यत्र जाने के लिए ऋषियों से विदा लेना 


माँ अनसूया ने सीता की, पूरी कथा सुनी हो हर्षित  

भरा अंक में सीता को कहा, मधुर प्रसंग अति है विचित्र 

 

मस्तक सूंघा, कहा फिर उनको, यद्यपि मन लगा है इसमें 

किंतु सूर्य अब अस्त हो गये, पंछी जा पहुँचे नीड़ों में 


जल से भीगे वल्कल पहने, कलश उठा वे लौट रहे हैं 

मुनिजन जो स्नान कर आये, तापस जिनके तन भी आद्र हैं 


अग्निहोत्र समाप्त कर लिया, मिलकर महर्षि अत्रि ने विधिवत् 

वायुवेग से उठा हुआ यह, धुँआ दिखायी दे श्यामवर्ण


चारों ओर जो वृक्ष दिख रहे, अंधकार में घने लग रहे 

भान दिशाओं का नहीं होता, चहुँओर निशाचर घूम रहे 


रात्रि सजी है नक्षत्रों से, तपोवन के सब  मृग सो गये

ज्योत्सना की ओढ़े ओढ़नी, चन्द्रदेव भी उदित हो गये 


अब जाओ श्रीराम के निकट, जाने की आज्ञा देती हूँ 

मधुर तुम्हारी बातों से मैं, अति प्रसन्न संतुष्ट हुई हूँ 


इससे पहले करो अलंकृत, स्वयं को इन दिव्य गहनों से 

 रहो सुशोभित धारण कर लो, वस्त्र दिये जो तुमको मैंने 


देवकन्या सम सीता ने, वस्त्राभूषण से शृंगार किया 

शीश झुका कर किया प्रणाम, श्रीराम हेतु प्रस्थान किया 


श्रीराम ने जब उन्हें देखा, दिव्य वस्त्र-आभूषण धारे 

हुए अति प्रसन्न देख वह, प्रेमोपहार थे अनसूया के 


जैसे  उन्हें प्राप्त हुए थे, सब विवरण सीता ने सुनाया 

दोनों भाई अति प्रसन्न थे, दुर्लभ स्नेह  सीता ने पाया 


चंद्रमुखी सीता के संग फिर, रात्रि वहीं विश्राम किया 

उषाकाल वनवासी मुनियों ने, अग्निहोत्र कर ध्यान किया 


अग्निहोत्र आदि के बाद, आज्ञा ली जाने की राम ने 

 राक्षसों से आक्रांत है मार्ग, धर्म परायण तापस बोले


उपद्रव करते ही रहते हैं, नरभक्षी राक्षस व पशु भी 

जो तपस्वी अकेले मिल जाता, खा जाते उसे वे सभी 


हिंसक जंतुओं व राक्षसों से, रक्षा करें आप हमारी 

मार भगायें अथवा रोकें, यह आपसे विनती  हमारी 


यही मार्ग है जिससे होकर, वन के भीतर मुनि जाते हैं 

फल-मूल लाने की ख़ातिर, यहीं से वे प्रवेश करते हैं 


हाथ जोड़ सभी ब्राह्मणों ने, मिलकर स्वस्ति वाचन किया था 

शत्रुहन्ता श्रीराम ने वन में, सीता संग प्रवेश किया  


तीनों जब वन में जाते थे, उन्हें देख ऐसा लगता था, 

घन की घटाओं में जैसे, सूर्यदेव ने प्रवेश किया था  


                                         

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.