मन की दुनिया अजब निराली
भीतर कितने भेद छिपाए
बाहर रूप बदल कर आये,
द्वन्द्वों का शिकार हुआ जो
मन हाँ पागल मन कहलाये !
मन मतवाला हुआ डोलता
स्वयं ही स्वयं के राज खोलता,
कभी प्रीत के गीत सुनाये
वाणी व्रज सी कभी बोलता !
जाने कहाँ कहाँ की बातें
रचता खुद घातें-प्रतिघातें,
स्वयं आहत हो मरहम धरता
स्वयं से करता नई मुलाकातें !
मन की दुनिया अजब निराली
अनजानी भी देखीभाली
मन के पार न जाने देती
भूलभुलैया उलझन वाली !
अनिता निहालानी
१४ फरवरी २०११
सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeletebahut khub........kya kahne hain...:)
ReplyDeleteसच में मन की बात निराली ही है -
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना -
जाने कहाँ कहाँ की बातें
ReplyDeleteरचता खुद घातें-प्रतिघातें,
स्वयं आहत हो मरहम धरता
स्वयं से करता नई मुलाकातें
आपकी कविता पढ़कर लगता है जैसे हम इसे जी रहे हों !
सच्चाई की इतनी सुन्दर और सरल अभिव्यक्ति !
धन्यवाद
realy man ,man hi hota hai. man ke aankh hajar....bahut sundar rachana.
ReplyDeletesach hai man bas aisahi hai sunder rachna........
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