Friday, December 29, 2017

भरत द्वारा पिताके परलोकवास का समाचार पा दुखी हो विलाप करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्विसप्ततितमः सर्गः

भरत का कैकेयी के भवन में जाकर उसे प्रणाम करना, उसके द्वारा पिताके परलोकवास का समाचार पा दुखी हो विलाप करना तथा श्रीराम के विषय में पूछने पर कैकेयी द्वारा उनका श्रीराम के वनगमन के वृत्तांत से अवगत होना

पितृगृह में न देखा पिता को, माता के घर गये भरत तब
देख पुत्र को भरी हर्ष से, खड़ी हो गयी वह आसन तज

श्रीहीन सा महल को पाया, जब उसमें प्रवेश था किया
माता के शुभ चरणों का फिर, झुककर भरत ने स्पर्श किया

मस्तक सूँघा, लगा हृदय से, निकट बिठा कर उनसे पूछा
बीतीं कितनी रात्रि मार्ग में, नाना गृह से निकले, बेटा !

अति शीघ्रता से तुम आये, क्या बहुत थकावट हुई तुम्हें
नाना, मामा सकुशल तो हैं, मुझे बताओ सारी बातें 

प्रिय वाणी में पूछा माँ ने, दिया जवाब दशरथ नंदन ने
 रात सातवीं बीती है यह, चला था जब नाना के घर से

कुशल से हैं नाना व मामा, विदा किया मुझे धन आदि दे
नहीं अभी तक पहुँचे हैं वे, वाहन थके भार से उनके

दूतों ने मचायी जल्दी, राजकीय संदेश जो लाये
पहले ही चला आया हूँ मैं, इसीलिए शीघ्रता करके

अच्छा माँ ! अब जो मैं पूछूँ, उत्तर दो शीघ्र तुम उसका
हर्षित नहीं हैं क्यों परिजन, सूना क्यों है पलंग तुम्हारा

जिनके दर्शन की इच्छा है, पिता कहाँ हैं, मुझे बताओ
उनके चरण मुझे छूने हैं, क्या माँ कौसल्या के घर हैं ?

घोर अप्रिय इस समाचार को, प्रिय समझ कर लगी बताने
राज्य लोभ से अति मोहित थी, कैकेयी बोली भरत से  

 महात्मा थे पिता तुम्हारे, आश्रयदाता भी सत्पुरुषों के
इक दिन जो गति होती सबकी, उसी गति को प्राप्त हुए वे  

धार्मिक कुल में भरत जन्मे थे, शुद्ध अति हृदय था उनका
पितृ शोक से गिरे भूमि पर, माता की सुन बात वह सहसा

‘मारा गया मैं’, दीन वचन यह, कहने लगे हो दुःख से आतुर  
महापराक्रमी लगे लोटने, पटक बाजुओं को धरती पर

हुई भ्रांत चेतना उनकी, चित्त हुआ अति व्याकुल दुःख से
दुःख से भरे वचन बोलते, कर स्मरण विलाप करते थे

सुशोभित होती थी यह शय्या, शरद काल के निर्मल नभ सी
  बिना चन्द्रमा के गगन ज्यों, श्री हीन है शुष्क सिंधु सी

सुंदर मुख वस्त्र में ढककर, कंठस्वर संग अश्रु गिराकर
गिर भू पर विलाप करते थे, मन ही मन अति पीड़ित होकर


Thursday, November 16, 2017

भरत का सारथि से अपना दु:खपूर्ण उद्गार प्रकट करते हुए राजभवन में प्रवेश करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकसप्ततितम: सर्ग:

रथ और सेनासहित भरत की यात्रा, विभिन्न स्थानों को पार करके उनका उज्जिहाना नगरी के उद्यान में पहुंचना और सेना को धीरे-धीरे आने की आज्ञा दे स्वयं रथ द्वारा तीव्र वेग से आगे बढ़ते हुए सालवन को पार करके अयोध्या के निकट जाना, वहाँ से अयोध्या की दुरवस्था देखते हुए आगे बढ़ना और सारथि से अपना दु:खपूर्ण उद्गार प्रकट करते हुए राजभवन में प्रवेश करना


देख सामने पुरी अयोध्या, भरत सारथि से तब बोले
नहीं प्रसन्न दिखाई देती, शोभित नगरी उद्यानों से

जहाँ निवास करते गुणवान, वेदों के पारंगत ब्राह्मण
धनियों की भी बस्तियाँ यहाँ, राजा दशरथ करते पालन

वही अयोध्या दीख रही है, मिटटी के ढूह की भांति
तुमुलनाद नर-नारी का, देता नहीं है आज सुनाई 

संध्या समय उद्यानों में, यहाँ निवासी क्रीड़ा करते
किन्तु आज सूने लगते हैं, परित्यक्त हो वे रोते से

जंगल सी जान पड़ती पुरी, अश्व, गज सवार नहीं दिखते
आते-जाते श्रेष्ठ मनुष्य, यात्री कहीं नजर नहीं आते 

मदमत्त भ्रमरों से पहले, जो उद्यान भरे रहते थे
प्रेमीजन के प्रेम-मिलन हित, जो अनुकूल नजर आते थे

आज सुख शून्य लगते हैं, वृक्ष मानो क्रन्दन हैं करते
रागयुक्त कलरव खगों के, अब तक नहीं सुनाई देते 

चंदन व अगरू की गंध से, युक्त समीर नहीं बहता है
भेरी, मृदंग, मधुर वीणा, शब्द क्यों जाने बंद हुआ है

देख अनिष्टकारी अपशकुन, खिन्न हो रहा है मन मेरा
सकुशल नहीं हैं बांधव मेरे, ऐसा ही प्रतीत हो रहा

हृदय शिथिल हुआ भरत का, अति डरे हुए, थीं क्षुब्ध इन्द्रियाँ
इसी अवस्था में उन्होंने, अयोध्या में प्रवेश किया

पश्चिम में वैजयन्त मार्ग से, घबराए से भीतर आये
द्वारपालों ने किया तब स्वागत, सारथि से ये वचन कहे

उतावली से मुझे बुलाया, अशुभ की आशंका मन में
दीनता रहित स्वभाव भी मेरा, भ्रष्ट हुआ है निज स्थिति से

राजाओं के विनाश के लक्षण, अब से पहले सुन रखे थे
 घटित होते अपने सम्मुख, देख रहा हूँ उन्हें आज मैं

झाड़ू नहीं लगी घरों में, रूखे और श्रीहीन लगते हैं
द्वार खुले हैं सुगंध से वंचित, भोजन आदि नहीं बने हैं

प्रभाहीन दिखाई देते घर, लक्ष्मी का निवास नहीं है
बलिवैश्वदेव कर्म न होते, पहले सी शोभा नहीं है

मन्दिर सजे नहीं फूलों से, देवों की पूजा नहीं होती
यज्ञ कर्म भी नहीं चल रहेबाजारों में सामान नहीं

व्यापारी भी दीन लग रहे, चिंता से वे ग्रस्त लग रहे
देवालयों, वृक्षों के वासी, पशु-पक्षी भी दीन लग रहे

स्त्री-पुरुषों के मुख मलिन हैं, अश्रु भरे उनकी आँखों में
उत्कंठित, चिंतित, दुर्बल हैं, दीन लग रहे सब के सब वे

सारथि से ऐसा कहकर, अपशकुनों को देख भरत
मन ही मन दुखी होते, गये राजमहल के भीतर

इंद्र की नगरी सम शोभित, जो अयोध्या नगरी पहले
आज देख दुर्दशा उसकी, दुःख में भरत निमग्न हो गये

पहले कभी नहीं हुईं थीं, उन बातों को हुआ देख घटित
मस्तक झुका लिया भरत ने, दीन-हृदय से हुए प्रवेशित


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इकहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Thursday, November 9, 2017

रथ और सेनासहित भरत की यात्रा

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकसप्ततितम: सर्ग:

रथ और सेनासहित भरत की यात्रा, विभिन्न स्थानों को पार करके उनका उज्जिहाना नगरी के उद्यान में पहुंचना और सेना को धीरे-धीरे आने की आज्ञा दे स्वयं रथ द्वारा तीव्र वेग से आगे बढ़ते हुए सालवन को पार करके अयोध्या के निकट जाना, वहाँ से अयोध्या की दुरवस्था देखते हुए आगे बढ़ना और सारथि से अपना दु:खपूर्ण उद्गार प्रकट करते हुए राजभवन में प्रवेश करना

राजगृह से निकल गये जब, पूर्वदिशा को बढ़े भरत
सतलज को भी पार किया, नदी सुदामा को पार कर

ऐलधन गाँव जा पहुँचे, नदी पार कर अपरपर्वत
शिला नामकी नदी जहाँ थी, गये वहाँ से शल्य कर्षण

शिलावहा को करके पार, चैत्ररथ वन में जा पहुँचे
सरस्वती गंगा संगम से, भारुदंड वन के भीतर गये

कलकल बहती कुलिंगा को, पार किया यमुना जा पहुँचे
घोड़ों को विश्राम कराया, सेना संग फिर आगे बढ़ गये

अंशुदान ग्राम से होकर, प्राग्वट नगर जा पहुंचे
धर्मवर्धन गाँव में आये, कुटिकोष्टिका नदी के तट से

तोरण गाँव से गये जम्बूप्रस्थ, बरूथ नामके स्थान पर पहुँचे
प्रातःकाल बढ़े पूर्व दिशा में, उज्जिहाना उद्यान जा पहुंचे

धीरे-धीरे पीछे आने की, दी आज्ञा तब सेना को
तीव्र गति से रथ चलाया, जुतवा शीघ्रगामी अश्वों को

एक रात्रि रहे सर्वतीर्थ में, हस्तिपृष्ठक ग्राम में पहुंचे
कपीवती को पार किया तब, कुटिका पार लोहित्य गये

एकसाल में स्थाणुमती को, गोमती को विनतग्राम में
कलिंगनगर तक जाते-जाते, थक गये थे घोड़े उनके

दे विश्राम उन्हें कुछ काल, अयोध्या पहुंचे सालवन से
सात रात्रियाँ मार्ग में आयीं, आठवें दिन अयोध्या पहुँचे


Wednesday, September 27, 2017

भरत का पिता आदि की कुशल पूछना और शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

सप्ततितम: सर्ग:

दूतों का भरत को उनके नाना और मामा के लिए उपहार की वस्तुएँ अर्पित करना और वसिष्ठ जी का संदेश सुनाना, भरत का पिता आदि की कुशल पूछना और नाना से आज्ञा तथा उपहार की वस्तुएँ पाकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान करना

स्वप्न वृत्तान्त निज मित्रों को, कहा भरत ने जिन घड़ियों में  
उसी काल थके वाहन लेकर, राजगृह में दूत पधारे 

असह्य ही था शत्रुओं को भी, जिसकी खाई को लाँघना
उस केकयदेश आ पहुँचे, राजा आदि का सम्मान किया

दूतों का भी राजा, पुत्र  ने, किया उचित आदर सत्कार
भावी राजा भरत को झुककरछूकर चरण कहे उद्गार

पुरोहित व मंत्रियों ने मिल, कुशल-मंगल है कहा आपसे
अयोध्या में कार्य आवश्यक, चलिए आप शीघ्र यहाँ से

विशाल नेत्रों वाले कुमार !, ग्रहण करें वस्त्र, आभूषण
बहुमूल्य सामग्री है यह, मामा का भी करें अभिनंदन

बीस करोड़ की लागत वाली, नानाजी  के लिए  उपस्थित
दस करोड़ की कीमत वाली, भेजी गयी मामा की खातिर 

लेकर वे वस्तुएँ सारी तबबाँटी भरत ने सुहृदों में
इच्छानुसार दीं दूतों को भी, कर आदर यह वचन कहे

सकुशल तो हैं पिता मेरे, राम, लक्ष्मण निरोगी, सुखी भी  
धर्मज्ञा माँ कौसल्या को, रोग या कोई कष्ट तो नहीं

वीर लक्ष्मण व शत्रुघ्न की, जो जननी मझली माँ सुमित्रा
स्वस्थ और सुखी तो हैं, धर्म परायणा, पूज्या, आर्या

स्वार्थ सिद्ध करना जो चाहे, बुद्धिमती जो खुद  को माने
कठोर अति स्वभाव वाली माँ, कैकेयी ने क्या वचन कहे

पूछने पर भरत के यह सब, दूतों ने ये वचन कहे थे
जिनका कुशल-मंगल अभिप्रेत, सकुशल हैं परिजन सभी वे

कमल लिए हाथों में लक्ष्मी, वरण करें सदैव आपका
रथ जुतकर अब हों तैयार, शीघ्र करें आरम्भ यात्रा

नाना जी से भी मैं पूछ लूँ, कहा भरत ने तब दूतों से 
क्या आज्ञा है महाराज की, दूत मुझे जाने को कहते

नाना के निकट जा बोले, जा रहा हूँ मैं नगर पिता के
याद करेंगे जब भी आप, आ पुनः मिलूँगा मैं आपसे

मस्तक सूँघ कुमार भरत का, राजा ने शुभ वचन यह कहा
जाओ, मैं आज्ञा देता हूँ, माँ-पिता को कुशलता कहना 

पुरोहित और ब्राह्मणों से भी, मेरा कुशल-मंगल कहना
श्रीरामचन्द्र, लक्ष्मण को भी, विवरण सभी यहाँ का कहना

ऐसा कहकर किया सत्कार, उन्हें अनेकों उपहार दिए
मृग चर्म, कालीन विचित्र कुछ, उत्तम हाथी भी भेंट किये

अंत:पुर में पले-पोसे थे, बल में बाघों के समान थे
अति विशाल काया वाले थे, कुछ कुत्ते ऐसे भेंट किये

दो हजार सोने की मोहरें, सोलह सौ घोड़े बलवान
कर दिया साथ मंत्रियों को, भेंट में देकर धन भी अपार

मामा ने दिए गज बलवान, इरावान पर्वत से आए
शीघ्रगामी और सुशिक्षितदिए खच्चर कई इन्द्रशिर के

जाने की जल्दी थी उनको, किया नहीं धन का अभिनंदन
हृदय में चिंता थी भारी, देख दूत, दु:स्वप्न का दर्शन

गये प्रथम वह निज वास को, यात्रा की तैयारी करने
गज, अश्व मनुजों से भरा जो, राजमार्ग को निकल वहाँ से

सड़क पार कर भरत कुमार, राजभवन के भीतर पहुँचे
नाना, नानी, मामा जी से, ले विदा रवाना हो गये

सौ से अधिक रथों में बैठ, चले साथ उनके सेवक जन
हो सेना से पूर्ण सुरक्षित, इंद्र समान किया प्रस्थान



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Friday, September 15, 2017

भरत का मित्रों के समक्ष अपने देखे हुए भयंकर दुःस्वप्न का वर्णन करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकोन सप्ततितमः सर्गः

भरत की चिंता, मित्रों द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास तथा उनके पूछने पर भरत का मित्रों के समक्ष अपने देखे हुए भयंकर दुःस्वप्न का वर्णन करना

जिस रात्रि प्रवेश किया था, आकर दूतों ने उस नगरी में
इक अप्रिय स्वप्न देखा था, पूर्व रात्रि को कुमार भरत ने

प्रायः भोर होने को थीस्वप्न देख जब हुए थे चिंतित
दुखी उन्हें जान मित्रों ने, एक सभा तब की आयोजित

क्लेश मानसिक दूर हो सके, उन्हें सुनाया वीणा वादन
हास्य रसों की थी प्रधानता, नृत्य, नाटिका का भी मंचन 

किन्तु भरत प्रसन्न ना हुए, प्रियवादी उन मित्रों के संग
देख उन्हें तब व्यथित निरंतर, एक मित्र ने पूछा कारण

कहा भरत ने, तुम्हें बताता, किस कारण यह दैन्य हुआ था 
स्वप्न में देखा पिता को अपने, खुले केश व मुख मलिन था

पर्वत की चोटी से गिरकर, गोबर के खड्ड में पड़े थे
तिल, भात का भक्षण करके, हँसते हुए से तेल पी रहे

सागर को सूखते देखा, चाँद को गिरते हुए धरा पर
उपद्रव से ग्रस्त थी वसुधा, अंधकार छाया सभी ओर

दांत टूट कर हुआ था टुकड़े, महाराज के गजराज का
प्रज्ज्वलित अग्नि सहसा बुझ गयी, पर्वतों से निकलता धुआं

फटी है धरती, वृक्ष सूख गये, पर्वत कई ढह गये हैं
काले चौके पर बैठे राजा, स्त्रियाँ प्रहार करती हैं

रक्तिम फूलों की माला पहने, चन्दन भी लाल लगाए
गधे जुते रथ पर बैठे, दक्षिण दिशा की ओर बढ़ रहे

लाल वस्त्र पहने इक औरत, राक्षसी प्रतीत होती थी
महाराज को हँसती हुई वह, खींचकर लिए जाती थी

यह भंयकर स्वप्न देखा हैइसका फल यही तो होगा
 पिता, राम या लक्ष्मण में से, कोई प्राप्त मृत्यु को होगा

गधे जुते रथपर चढ़कर जो, नर स्वप्न में नजर है आता
उसकी चिता का धुआं शीघ्र ही, वास्तव में दिखाई देता 

इस कारण ही दुखी हो रहा, गला शुष्क, मन मेरा व्याकुल
भय का कारण नहीं देखता, फिर भी भय से मैं हूँ आकुल 

स्वर बदला, कांति फीकी है, स्वयं से ही नफरत होती है
क्या है इसका कारण लेकिन, मेधा समझ नहीं पाती है

पहले कभी नहीं सोचा था, ऐसे दु:स्वप्नों को देखा
चिंतित हूँ मैं यही सोचकर, दूर नहीं भय को कर पाता

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनह्त्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.