Tuesday, November 29, 2011

श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक – चूड़ामणि


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

क्रिया, चिंता और वासना का त्याग


अहंकार का निग्रह कर के, पुनः इसे जीवित न करना
ज्यों जल से पादप जी उठता, विषय चिंतन अहंकार जिलाता

देहात्म बुद्धि है जिसमें, वही वासना ग्रस्त रह सकता
देह अध्यास नहीं है जिसका, आत्मा नहीं सकाम हो सकता

कार्य बढ़े तो बीज बढ़ेगा, कार्य नाश से नाश बीज का
इच्छा से कार्य बढ़ता है, कार्य से बढ़ती है वासना

जग बंधन से मुक्ति जो चाहे, दोनों का ही नाश करे
विषय चिंतन व बाह्य क्रिया, वासना की ही वृद्धि करे

सब जगह जो ब्रह्म ही देखे, हर काल व हर देश में
ब्रह्म वासना दृढ़ होने पर, जगत वासना का लय होवे

क्रिया नष्ट हो, चिंता जाती, क्षय वासना का भी होता
मोक्ष इसे ही तो कहते हैं, जीवन मुक्ति भी कहलाता

सूर्य प्रभा तिमिर हटाती, ब्रह्म वासना अहंकार मिटाती
जग बंधन तब न रहता है, दुःख की गंध भी न रह जाती

Sunday, November 27, 2011

अहं पदार्थ निरूपण


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

अहं पदार्थ निरूपण

दृश्य जगत क्षणिक दिखता है, अहं पदार्थ नहीं हो सकता
सत् असत् से है विलक्षण, सुषुप्ति में भी जाना जाता

स्थूल-सूक्ष्म दोनों देहों का, अभाव भी देखा जाता है
जो विकारी को जाने, स्वयं अविकारी हो सकता

तीनों काल में है अबाधित, ज्ञान स्वरूप अखंड आत्मा
देह अध्यास को तज हे साधक, त्यागो भाव कर्ता, भोक्ता

अहंकार निंदा

अहंकार है मूल विकार, आत्मा को ढके है रहता
अहंकार मुक्त हुए से, स्वयं प्रकाश आत्मा प्रकटता

मोह और अज्ञान से बुद्धि, देह को ही ‘मैं’ करके जाने
इसका जब भी हुआ निषेध, आत्मा निज स्वरूप को जाने

ब्रह्मानंद परम धन है, अहं सर्प ने इसे लपेटा
ज्ञानस्वरूप कटार से भेदे, तभी आत्मा पा सकता

देह में अल्प विष भी हो यदि, नहीं निरोगी रहने देता
लेश मात्र भी अहंकार हो, आत्मा को ढके रहता

अहंकार का नाश हुए से, आत्म तत्व प्रकट होता है
कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि तज, आत्मानंद प्राप्त होता है

Saturday, November 26, 2011

अध्यास-निरास


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

अध्यास-निरास

कर निरोध चित्त वृत्ति का, आत्मस्वरूप में स्थित हो
मन-वासना का क्षय होगा, अध्यास को दूर करो

रज, सत से करो तम का नाश, सत गुण से रज का विनाश
शुद्ध सत्व से सत का भी क्षय, शुद्ध सत्व से अध्यास निरास

प्रारब्ध से देह चलेगी, निश्चल भाव से करो साधना
धैर्य सदा रहे बुद्धि में, यत्नपूर्वक अध्यास त्यागना

जीव नहीं मैं ब्रह्म ही हूँ, जीव भाव का करो निषेध
इच्छा त्रय से मुक्त हुए तुम, अध्यास का करो निरोध

भ्रम से ही अध्यास हुआ है, यत्नपूर्वक इसको त्यागो
श्रुति भी यह कहती आयी है, आत्मानुभव से अब जागो

कुछ भी त्याज्य नहीं है मुनि को, बोध्वन को कुछ न ग्राह्य
आत्मा में ही सदा रहो तुम, अनात्म में अध्यास है त्याज्य

ब्रह्म आत्मा के ऐक्य को, बुद्धि द्वारा दृढ़ निश्चय कर
अहंकार को युक्त्चित्त से, दूर करो अध्यास निरंतर

निद्रा में भी बोध रहे, आत्म विस्मृति हो न पल भर
सदा करो आत्मचिंतन तुम, अनुसंधान को नहीं भुलाकर

देह अनित्य और विनाशी, है अशुद्ध यह सदा विचारो
आत्मा से होता प्रकाशित, अंतर्मन में उसे निहारो

घटाकाश ज्यों मिल जाता है, घट नाश पर महाकाश में
जीवभाव भी मिल जाता है, अध्यास पर परम भाव में

परब्रह्म जग का अधिष्ठान है, सत्य स्वरूप में एक हो रहो
पिंड व ब्रह्मांड उपाधि, तज दोनों को मुक्त हो रहो

देह बुद्धि को आत्म बुद्धि में, कर परिवर्तित स्थिर हो
आनंद रूप चिदात्मा में, लिंग-देह का मान तजो

दर्पण में ज्यों जगत दीखता, ब्रह्म में जगत का आभास
वह ब्रह्म मैं ही तो हूँ, इस बोध का करो अभ्यास

ब्रह्म सदा चेतन सत्य है, आनंद रूप अद्वितीय सत्ता
मूल स्वरूप उसे जानकर, देह भाव की तजो आस्था 

Wednesday, November 23, 2011

वासना त्याग


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

वासना त्याग

आत्मवस्तु का ज्ञान हुआ हो, अंतर में है छिपी वासना
‘कर्ता’ व ‘भोक्ता’ बनाती, प्रयत्न पूर्वक हरो कामना

देह-इन्द्रिय नहीं आत्मा, इनमें जो अहंता, ममता
इसे ही अध्यास हैं कहते, दूर करो इसे निष्ठा द्वारा

साक्षी भाव में रखकर स्वयं को, अनात्मा से पृथक करो
मन-बुद्धि की हर वृत्ति में, आत्मभाव का त्याग करो

यह जग कारावास है इससे, मुक्ति की जो करे कामना
लोहे की बेड़ी सम तज दे, मन में जो भी प्रबल वासना

जैसे मैल का लेप लगा हो, अगरु की सुगंध खो जाती
स्वच्छ हुए से ही बुद्धि भी, चन्दन सी तन को महकाती

अनात्म भाव ने ही ढक दी है, शुद्ध आत्मभावना सुखमय
निष्ठापूर्वक लगा रहे जो, स्पष्ट दिखेगी यह भावमय

जैसे-जैसे भीतर जाता, मन वासना को तज देता
जब पूर्ण मुक्ति पा लेता, आत्मा का अनुभव हो जाता

Monday, November 21, 2011

ब्रह्म भावना


ब्रह्म भावना

स्थिर नहीं है जग में कुछ भी, एक तत्व आकाश समान
देह आदि मिथ्या लगते, जब शुद्ध ब्रह्म का होता ज्ञान

मृतिका का घट मृतिका ही है, सत् से उत्पन्न जगत भी सत्
सत् से परे न कुछ भी स्थित, तुम भी वही ब्रह्म हो सत्

स्वप्न जगत ज्यों मिथ्या होता, जाग्रत में भी ऐसा मानो
शांत, निर्मल और अद्वितीय, वही ब्रह्म तुम स्वयं को जानो

नीति, कूल गोत्र से परे, नाम-रूप, गुण-दोष रहित
देश, काल,वस्तु से पृथक, वही ब्रह्म हो करो भावना !

वाणी जिस तक पहुँच न पाती, परे प्रकृति से है अनादि
ज्ञान चक्षुओं से ही जानें, उसी ब्रह्म की करो भावना

क्षुधा-पिपासा आदि न जिसमें, इन्द्रियों से न ध्याया जाता
ऐश्वर्यवान परे बुद्धि से, उसी ब्रह्म की करो भावना

जो आधार इस भ्रांत जगत का, स्वयं के ही आश्रित है जो
सत् असत् परे दोनों से, निरवयव अनुपम है जो

जन्म, वृद्धि, परिणति, अपक्षय, व्याधि और नाश न जिसमें
सृष्टि, पालन, विनाश का कारण, उसी ब्रह्म की करो भावना

एक है पर अनेक का कारण, अन्यों के निषेध का कारण
स्वयं पृथक कार्य कारण से, उसी ब्रह्म की करो भावना

निर्विकल्प, महान अविनाशी, क्षर, अक्षर परे दोनों से
नित्य अव्यय, निष्कलंक जो, उसी ब्रह्म में करो भावना

सत् सर्वदा निर्विकार है, भ्रम वश नामरूप में भासे
गुणातीत है निर्विकल्प भी, उसी ब्रह्म की करो भावना  

जिसके परे और न कोई, स्वयं प्रकाशित है जो सत्ता
 अव्यय यह आनंद स्वरूप है, जो अनंत अंतर आत्मा

वही ब्रह्म हो तुम विचारो, बुद्धि से फिर करो यह बोध
ज्यों अंजुरी में जल भरा हो, संशय रहित तत्व का बोध

ज्यों सेना में राजा शोभे, रहे आत्मा पंच भूतों में
स्वयंप्रकाश विशुद्ध तत्व है, दृश्य जगत हो लीन उसी में

सत् असत् से परे विलक्षण, बुद्धिरूप गुहा में रहता
परब्रह्म का बोध जिसे हो, पुनः जन्म न उसका होता  



Thursday, November 17, 2011

महावाक्य विचार


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

ब्रह्म और जगत की एकता


यदि सत्य होता विश्व तो, सुषुप्ति में भी प्रतीति होती  
खो जाता है यह निद्रा में, स्वप्न समान अनुभूति होती

जैसे गुण से गुणी पृथक नहीं, ब्रह्म जगत से पृथक नहीं है
आरोपित है अधिष्ठान में, भ्रम से वही भास रहा है

जैसे चांदी दिखे सीपी में, जगत ब्रह्म में नजर आता है
इदं जगत में इदं ब्रह्म है, जगत भ्रम से देखा जाता है

महावाक्य विचार

‘तत्त्वमसि’ महावाक्य है, ब्रह्म-आत्मा एकत्व बताता
लक्ष्यार्थ में है एकता, वाच्यार्थ में कहा न जाता

ब्रह्म सूर्य, आत्मा जुगनू, वह दाता और यह सेवक है
वह सागर यह कूप है, ब्रह्म सुमेरु, आत्मा अणु है

मात्र उपाधि ही भेद का कारण, सत्य नहीं उपाधि भी
ईश्वर की उपाधि माया, पंचकोश है जीव उपाधि

राज्य उपाधि से है राजा, ढाल उपाधि से है सैनिक
राज्य, ढाल के न रहने पर, न ही राजा न ही सैनिक

ब्रह्म में कल्पित हुआ द्वैत जो, श्रुति निषेध करती है उसका
शेष बचे जो परे उपाधि के, वही जानने योग्य है सत्ता

जीव ब्रह्म का एक्य सिद्ध हो, तभी ज्ञान उनका होता है
‘वह यह है’ में ज्यों एकता तत्त्वमसि यही कहता है

इसी लक्षणा द्वारा ज्ञानी, जीव-ब्रह्म का ज्ञान हैं पाते
युगों युगों से इन्हीं वाक्यों से, दोनों की एकता बताते  
      


   

Monday, November 14, 2011

ब्रह्म और जगत की एकता


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

ब्रह्म और जगत की एकता


सत्य, नित्य, शुद्ध है जो, ज्ञानस्वरूप, अनंत, अभिन्न
अंतरतम वह ब्रह्म तत्व है, उन्नति स्रोत, आनंद का घन

परम अद्वैत ही सत्य पदार्थ, कोई न दूजा सिवा आत्मा
जिसको बोध हुआ है इसका, एक है उसको ब्रह्म-आत्मा

विविध रूप का जो दिखता है, है अज्ञान ही इसका कारण
एक ब्रह्म ही इसके पीछे, निर्विकल्प, आनंद घन

मिट्टी से जो बना है घट, नहीं पृथक है वह मिट्टी से
कल्पित नाम मात्र की सत्ता, मिट्टी ही कण-कण में उसके

कथन श्रुति का यह उत्तम है, सकल विश्व है यह ब्रह्म ही
अधिष्ठान में जो आरोपित, पृथक नहीं है सत्ता उसकी

यदि सत्य मानें जगत भी, आत्मा की अनंतता कैसे 
श्रुति अप्रमाणिक होती, ईश्वर भी सत्य हो कैसे

परम तत्व के जो ज्ञाता हैं, ईश्वर ने किया है निश्चित
न तो मैं भूतों में स्थित, न ही वे मुझमें हैं स्थित   

 
      


   
  

Friday, November 11, 2011

आत्मस्वरूप क्या है (शेष भाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

आत्मस्वरूप क्या है (शेष भाग)

घट, जल व प्रतिबिम्ब को जैसे, ज्ञानी भिन्न सूर्य से माने
देह, बुद्धि व चिदाभास को, तज साक्षी आत्मा जाने

है अखंड बोध स्वरूप, नित्य, विभु, सूक्ष्म, आत्मा
मन आदि का वही प्रकाशक, भीतर-बाहर सर्वगत आत्मा

जो स्वयं से अभिन्न जानता, निर्मल और अमर हो जाता
पाप रहित हो निज में टिकता, सत् असत् से पार हो जाता

शोक रहित आनंद घन वह, प्राप्त अभय को हो जाता है
जग बंधन से छूटना चाहे, आत्मतत्व को ही पाता है

ब्रह्म आत्मा के अभेद का, ज्ञान जीव को मुक्ति देता
जन्म-मरण से बच कर वह, ज्ञानस्वरूप ब्रह्म में टिकता

 
      

Tuesday, November 8, 2011

आनंद मय कोष


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

आनंद मय कोष

आनंद स्वरूप आत्मा के, प्रतिबिम्ब से जो चुम्बित होता
तमोगुण से प्रकट हुआ, आनंद मय कोष कहाता

प्रिय, मोद, प्रमोद से युक्त, अभीष्ट प्राप्ति पर हो प्रकट
पुण्य कर्म उदय होने पर, सुख स्वरूप होता निकट

नींद में भी आनंद ही मिलता, भासित भीतर ही होता
जागृत व स्वप्न में भी, यत्किंचित आभासित होता

आनन्दमय नहीं परात्मा, यह भी है प्रकृति विकार
शुभकर्मों से उत्पन्न होता, स्थूल शरीर इसका आधार

पंचकोशों का कर निषेध, जो बचता है वही आत्मा
तीन अवस्थाओं का साक्षी, निर्विकार, निर्मल परात्मा

स्वयं प्रकाश, पृथक कोशों से, श्रुति जिसका गायन करती
सत् रूप वह शुद्ध स्वरूप, उसे न छू पाती प्रकृति

आत्मस्वरूप क्या है

पंच कोष मिथ्या हैं यदि तो, शून्य शेष रह जाता है
हे सदगुरु ! कृपा कर कहिये, आत्मा कौन कहाता है

हे साधक ! तू कुशल बड़ा है, तूने निर्णय उचित लिया है
ज्यों अहंकार आदि विकार हैं, अभाव भी उनका होता है

जो अनुभव करता है इनको, स्वयं न अनुभव में आता
अपनी सूक्ष्म बुद्धि से उसको, ज्ञानी सत आत्मा मानता

जो भी जिसका करता अनुभव, साक्षित्व आत्मा ही करता
कोई नहीं साक्षी उसका, जिसका कोई न अनुभव होता

स्वयं को स्वयं से अनुभव करता, स्वयं का साक्षी है आत्मा
इससे परे न दूजा कोई, और न कोई अंतर आत्मा

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में, अहं रूप से स्फुरित होता
मन, बुद्धि, चित्त आदि को, साक्षी भाव से सदा देखता

घट जल में ज्यों प्रतिबिम्ब सूर्य का, मूढ़ उसे ही सूर्य माने
अज्ञानी भी चिदाभास को, भ्रम से अपना आप ही जाने

Saturday, November 5, 2011

विज्ञानमय कोष


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

विज्ञानमय कोष

ज्ञान इन्द्रियों के सँग बुद्धि, विज्ञानमय कोष कहाता
कर्तापन के स्वभाव वाला, चेतना का प्रतिबिम्ब दिखाता

मैं हूँ ज्ञाता, क्रियावान भी, देह, इन्द्रियों का अभिमानी
निकट आत्मा के यह रहता, भ्रम से इसने सत्ता मानी

स्वयं प्रकाशित निर्विकार जो, प्राणादि में स्फुरित होता
मन, बुद्धि की उपाधि वश ही, कहलाता है कर्ता, भोक्ता

बुद्धि की उपाधि पाकर, उससे एकीभाव में रहता
सात्विक होते हुए भी खुद को, खुद से वह पृथक देखता

एक रूप है सदा आत्मा, किन्तु उपाधि वश है भ्रमता
ज्यों अविकारी अग्नि स्वयं में, लोहे के समान चमकता

शिष्य पूछता तब सद्गुरु से, कैसे छूटें जन्म-मरण से
जीव भाव अनादि काल से, कैसे टूटे भाव प्रबल ये

सुनो वत्स हो सावधान तुम, भ्रमवश जो की गयी कल्पना
नहीं माननीय हो सकती, टूटेगी ही यह भ्रमणा

जैसे भ्रम नीलता नभ की, निर्विकार में सब विकार हैं
है असंग, निष्क्रिय जो, उसमें दोष सब असार हैं

साक्षी, निर्गुण है अक्रिय, आनंद व ज्ञान स्वरूप
जीवभाव भुद्धि के भ्रम से, नहीं सत्य अवस्तुरूप

जैसे रज्जु सर्प बना है, जब तक, तब तक भ्रम रहता
वैसे ही जब तक प्रमाद है, जीव भाव की है सत्ता

नींद खुले से जैसे जग में, स्वप्न लोक तिरोहित होता
ज्ञानोदय से जीवभाव भी, मूल सहित नष्ट हो जाता

है अनादि पर नित्य नहीं है, जीव भाव सदा न रहता
मिथ्या ज्ञान है कारण जिसका, ज्ञान हुए से नहीं ठहरता

ब्रह्म जीव का एक्य भाव ही, ज्ञान वास्तविक कहलाता
श्रुतियों का भी यही वचन है, जीव भाव निवृत्त हो जाता

आत्म-अनात्म का जगे विवेक तो, ब्रह्म जीव एकता सधती 
अहं दोष मुक्त होने पर, आत्मा भी प्रकाशित होती

सत्-आत्मा के विचार से, असत् की निवृत्ति होती
विज्ञानमय कोष अनित्य, बुद्धि न नित्य हो सकती