Thursday, January 24, 2013

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम् षोडशः सर्गः



श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


षोडशः सर्गः
देवताओं का श्रीहरि से रावण वध के लिए मनुष्य रूप में अवतरित होने को कहना, राजा के पुत्रेष्टि यज्ञ में अग्निकुंडसे प्राजापत्य पुरुष का प्रकट होकर खीर अर्पण करना और उसे खाकर रानियों का गर्भवती होना 


जाम्बूनद नामक सुवर्ण से, जिसे तपाया गया अग्नि में
बनी हुई थी बड़ी परात, ढकी थी चांदी के ढक्कन से

उसे उठाये था हाथों पर, मायामयी सी लगती थी वह
जैसे कोई रसिक लिए हो, प्रियतमा पत्नी को गह

किया नरेश ने स्वागत उसका, भगवन ! क्या मैं सेवा करूं ?
प्राजापत्य पुरुष यह बोला, प्राप्त हुआ है तुम्हें चुरू

खीर बनाई है देवों ने, तुम आराधक हो जिनके
धन, आरोग्य बढ़ाने वाली, संतति भी प्रदान करे

योग्य पत्नियों को दो खीर, पूर्ण कामना होगी इससे
पुत्र अनेकों होंगे प्राप्त, जिस कारण तुम यज्ञ कर रहे

“बहुत अच्छा” कहा राजा ने, हो हर्षित, ली स्वर्ण परात
दिव्य पुरुष की दी हुई खीर, मस्तक पर ली उसने धार

की परिक्रमा दिव्य पुरुष की, आनंद से प्रणाम किया
हर्षित अति हुए नरेश फिर, मानो धन, निर्धन को मिला

 अन्तर्धान हुआ पुरुष वह, परम तेजस्वी, अद्भुत था जो
राजा गए खीर ले भीतर, अंतः पुर को हर्षित हो

हर्षित हो रानियाँ शोभित, जैसे शरद कालीन आकाश
कांतिमयी किरणों से प्रकाशित, चन्द्र लुटाता हो प्रकाश

कौसल्या से बोले राजा, देवी, खीर यह ग्रहण करो
पुत्र दिलाने वाली है यह, आधा भाग दिया उसको

बचे हुए आधे का आधा, दिया सुमित्रा को राजा ने
कैकेयी को शेष का आधा, शेष पुनः सुमित्रा ने

अमृत सम वह खीर बाँट दी, इस प्रकार राजा दशरथ ने
हर्षित हुआ चित्त सभी का, माना इसे सम्मान उन्होंने

तीनों साध्वियाँ थीं प्रसन्न, उस उत्तम खीर को खाकर
तेजस्वी अग्नि व सूर्य सम, पृथक-पृथक गर्भ धारण कर

अति हर्षित थे राजा दशरथ, पूर्ण मनोरथ हुआ जानकर
ज्यों स्वर्ग में हरि पूजित हैं, राजा पूजित हुए धरा पर

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ.






Tuesday, January 22, 2013

राजा के पुत्रेष्टि यज्ञ में अग्निकुंडसे प्राजापत्य पुरुष का प्रकट होकर खीर अर्पण करना


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 



पंचदशः सर्गः
ऋष्यश्रंग द्वारा राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का आरम्भ, देवताओं की प्रार्थना से ब्रह्माजी का रावण के वध का उपाय ढूँढ निकलना तथा भगवान विष्णु का देवताओं को आश्वासन देना 


मुनियों सहित सिद्ध, गंधर्व, यक्ष, देवता सब आए हैं
उसके वध की लिए आपकी, शरण मांगने आए हैं

शत्रु हंता देव ! आप ही, परमगति हम सब लोगों की
मानव का अवतार लीजिये, नष्ट हो सके देवताद्रोही

सुनकर इस स्तुति को तब, सर्व वन्दित विष्णु यह बोले
हो कल्याण आपका देवों, त्याग भय निश्चिन्त अब होलें

पुत्र, पौत्र, अमात्य मंत्री, सहित बांधवों के रावण को
युद्ध में हत करूँगा मैं, क्रूर, दुर्धर्ष उस राक्षस को

देवों, ऋषियों को अभय कर, पालन पृथ्वी का करूँगा  
तब ग्यारह हजार वर्षों तक, मनुष्यलोक में वास करूँगा

देवों का ऐसा वर देकर, विचार किया भगवान विष्णु ने
दशरथ के घर वे जन्मेंगे, स्वयं के चार स्वरूप बाँट के

तब देवों, ऋषियों ने कहा यह, सारे जग को दुःख से बचाएं
उस रावण का वध करके, पुनः चिरन्तन लोक में जाएँ
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पन्द्रहवां सर्ग पूरा हुआ.


षोडशः सर्गः

देवताओं का श्रीहरि से रावण वध के लिए मनुष्य रूप में अवतरित होने को कहना, राजा के पुत्रेष्टि यज्ञ में अग्निकुंडसे प्राजापत्य पुरुष का प्रकट होकर खीर अर्पण करना और उसे खाकर रानियों का गर्भवती होना

श्रेष्ठ देवताओं द्वारा जब, नियुक्त हुए प्रभु रावण वध हित
बन अनजान पूछते उनसे, किस उपाय से करूं यह कृत

देव बोले, अविनाशी प्रभु से, मानव रूप धरें जब आप
युद्ध करें उस क्रूर दैत्य से, आहत जिससे जग है आज

पितामह की लेकर अनुमति, तब विष्णु अन्तर्धान हुए
अग्निकुंड से तब दशरथ के, पुरुष विशाल इक प्रकट हुए

था प्रकाशित तन उसका, बली, महापराक्रमी लगता
काले अंग, लाल वस्त्र, सिंह समान वह गम्भीर था

शैल शिखर सा ऊँचा था वह, दिव्य आभूषण धारे था
चिकने केश, अग्नि सा वर्ण, हाथों में परात लिए था


Saturday, January 12, 2013

ब्रह्माजी का रावण के वध का उपाय ढूँढ निकलना


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 



पंचदशः सर्गः
ऋष्यश्रंग द्वारा राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का आरम्भ, देवताओं की प्रार्थना से ब्रह्माजी का रावण के वध का उपाय ढूँढ निकलना तथा भगवान विष्णु का देवताओं को आश्वासन देना 


देवों के ऐसा कहने पर, कुछ सोच यह बोले ब्रह्मा
मुझे ज्ञात हो गया उपाय, उस दुरात्मा के वध का

वर माँगा था जब उसने, यही कही थी एक बात तो
यक्ष, देव, राक्षस न मारें, न ही मरूं गन्धर्व के हाथों

“ऐसा ही हो” कहकर मैंने, मानी थी उसकी अभिलाषा
नहीं अवध्य वह मानव से, मानव को तो तुच्छ समझता

मानव के अतिरिक्त न दूजा, कोई उसका वध कर सकता
सुन कर हर्षित हुए ऋषिगण, अब है रावण मर सकता

इसी समय महान तेजस्वी, जगतपति श्री विष्णु भगवान
मेघ के ऊपर सूर्य हो जैसे, आए गरुड़ पर हो विद्यमान

पीताम्बर धारे थे तन पर, शंख, चक्र गदा आदि ले
तपे हुए सोने के केयूर, थे सुशोभित द्वि भुजा में

वन्दित हुए सभी देवों से, ब्रह्मा जी से मिले वहाँ
हुए विराजित उसी सभा में, यज्ञ हुआ था पूर्ण जहां

कहा विनय से भर देवों ने, सर्व व्यापी, हे परमेश्वर !
तीनों लोकों का हित जिसमें, एक महा कार्य आप पर

प्रभो, अयोध्या के राजा, धर्मज्ञ, उदार बहुत हैं
तेजस्वी महर्षियों जैसे, उनकी तीन रानियाँ हैं

ह्री, श्री और कीर्ति जैसी, हैं देवियों के ही समान
चार स्वरूप बना कर अपने, पुत्र रूप में लें अवतार  

 वध कर डालें समर भूमि में, महा पराक्रमी रावण का  
देवों से जो है अवध्य, कंटक रूप है जो जग का

मूर्ख राक्षस रावण जग में, कष्ट दे रहा है सबको
गन्धर्वों, सिद्धों आदि को, साथ मुनि, महर्षियों को

रौद्र निशाचर ने ऋषियों को, नन्दन वन से गन्धर्वों को
गिरा दिया है भूमि पर, स्वर्ग से भी अप्सराओं को


Monday, January 7, 2013

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम् पंचदशः सर्गः


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


पंचदशः सर्गः

ऋष्यश्रंग द्वारा राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का आरम्भ, देवताओं की प्रार्थना से ब्रह्माजी का रावण के वध का उपाय ढूँढ निकलना तथा भगवान विष्णु का देवताओं को आश्वासन देना

ऋष्यश्रंग थे अति मेधावी, वेदों के ज्ञाता भी थे
ध्यान लगाया कुछ पल को, हुए विरत राजा से बोले

मैं पुत्रेष्टि यज्ञ करूंगा, अथर्व वेद के मंत्रों द्वारा  
हो अनुष्ठान यदि विधिपूर्वक, सफल अवश्य ही होगा

यह कहकर तेजस्वी मुनि ने, आरम्भ की यज्ञ विधि
श्रौत विधि के अनुसार तब, अग्नि में दी थी आहुति

अपना भाग ग्रहण करने हित, उस यज्ञ में प्रगट हुए
 देव, सिद्ध, गन्धर्व, महर्षि, ब्रह्मा जी से ये बोले

रावण कष्ट हमें देता है, कृपाप्रसाद आपका पाकर
उसे दबा दें नहीं है शक्ति, करें आपके वर का आदर  

तीनों लोकों को दुःख देता, द्वेष उच्च जनों से करता
इंद्र को भी करे परास्त, इसकी वह अभिलाषा रखता

वरदान से मोहित होकर, उद्दंड वह, दुःख दे रहा  
ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, व ब्राह्मणों का अपमान कर रहा

सूर्य नहीं तपाता उसको, वायु भी न चले जोर से
सागर देख उसे न हिलता, थम जाती हैं उसकी लहरें

बड़ा भयंकर रूप है उसका, भयभीत हैं हम सब सारे
अति शीघ्र ही उसके वध का, कोई उपाय शीघ्र निकालें