Saturday, November 17, 2012

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्-महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेधयज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्

बालकाण्डम् 


चतुर्दशः सर्गः

महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेधयज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान 


चयन द्वारा सम्पादित अग्नि, स्थापित की कुशल द्विजों ने
पूर्वाभिमुख गरुड़ सी लगती, जो पंख, पुच्छ फैलाकर देखे

सुवर्ण ईंट से पंख बने थे, गरुड़ाकृति अग्नि लगती थी
अठारह प्रस्तारों वाली वह, अश्वमेध के योग्य सजी थी

पूर्वोक्त यूपों में वहाँ पर, शास्त्र विहित पशु बांधे थे
सर्प और पक्षी भी कुछ, देवताओं हित वहाँ बंधे थे

शामित्र कर्म में यज्ञिय अश्व, कूर्म आदि जलचर भी थे
शास्त्रविधि से उन सबको, बांधा था वहाँ ऋषियों ने

 बंधे हुए थे पशु तीन सौ, उन यूपों में उस काल में
राजा का वह अश्वरत्न भी, बंधा हुआ था उसी स्थान में

संस्कार युक्त प्रोक्षण आदि, किया तब कौशल्या रानी ने
तीन बार स्पर्श किया फिर, हो प्रसन्न तीन तलवारों से

धर्मपालन की इच्छा रखकर, रानी कौशल्या थी आयी
सुस्थिर चित्त से निकट अश्व के, एक रात्रि वहीं बितायी

कौशल्या, वावाता, परिवृत्ति, तीन जाति की महिलाओं से
स्पर्श कराया उस अश्व का, होता, अध्वर्यु, उद्गाता ने

तत्पश्चात जितेन्द्रिय ऋत्विक ने, विधिपूर्वक था जिसे निकाला
शास्त्र विधि से उसे पकाया, वह गूदा लेकर अश्वकन्द का

उस गूदे की दी आहुति, फ़ैल गया था उसका धुआं
पाप दूर करने के हित ही, राजा ने था उसको सूंघा

अंगभूत अश्वमेध यज्ञ के, जो-जो भी हवनीय पदार्थ थे
सोलह ऋत्विज ब्राह्मण मिलकर, विधिवत् अग्नि में आहुति दें


Monday, November 5, 2012

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्-चतुर्दशः सर्गः


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


चतुर्दशः सर्गः


महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेधयज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान

इधर वर्ष जब पूर्ण हुआ, अश्व भ्रमण कर लौटा भू में
सरयू नदी के उत्तर तट पर, राजा बैठे संग मुनि के

वेदों के पारंगत ब्राह्मण, न्याय, विधि के ज्ञाता थे जो
शास्त्र अनुसार कर्म करते थे, किया यज्ञ के सब कर्मों को

देवताओं का पूजन करके, कर विधिपूर्वक प्रातःसवन भी
इंद्र देव को दिया हविष्य, पाया सोमलता का रस भी  

ऋष्यश्रंग आदि मुनियों ने, मंत्रों द्वारा किया आवाहन
मधुर, मनोहर सामगान से, देवों को था किया समपर्ण

योग्य हविष्य मिला देवों को, होताओं ने भूल नहीं की
क्षेमयुक्त, निर्विघ्न कर्म कर, की थी पूर्ण विधि यज्ञ की

सभी वहाँ विद्वान थे ब्राह्मण, कोई नहीं थका या भूखा
सबको सब उपलब्ध वहाँ था, सबको मिलता दान वहाँ

विधिवत् पके अन्न के ढेर, पर्वत जैसे पड़ें दिखाई
तृप्त हुए पाकर हम भोजन, दे राजा को यही सुनाई

वस्त्र-आभूषण से सजे थे, पुरुष अन्न परोसा करते
मणिमय कुंडल धारण करके, सभी अन्य काम भी करते

दो सवनों के अंतराल में, उत्तम वक्ता, धीर ब्राह्मण
शास्त्रार्थ करते आपस में, करते कर्मों का सम्पादन

व्याकरण के ज्ञाता थे वे सब, बहुश्रुत और कुशल थे वक्ता
ब्रह्मचर्य का पालन करते, द्विज सभी वेदों के ज्ञाता

 समय हुआ जब यूप खड़े हों, छह यूप बेल के गाड़े
खैर, पलाश के यूप भी गाड़े, बिल्व्निर्मित छह किये खड़े

बहेड़े का एक यूप था, देवदारु के दो अभीष्ट थे
दोनों बाँहों की दूरी पर, वे दोनों स्थापित थे

सोना जड़ा गया था उनमें, इक्कीस अरलि थे ऊँचे
पृथक-पृथक वस्त्रों से ढके थे, आठ कोणों से थे सजे