Thursday, April 28, 2011

जीवन की अब शाम हो चली


जीवन की अब शाम हो चली

कितनी पीड़ा, कितने दर्द
कितने जख्म छिपाए भीतर,
ऊपर से हँसता है मानव
डर-डर कर जीता है भीतर !

इक कांटा तो चुभता हर पल
‘मैं भी कुछ हूँ’ मुझे सराहो,
इस होने को कुछ तो अर्थ दो
दुनिया की यह रीत निबाहो !

होश संभाला जब से उसने
स्वयं को सदा माँगते पाया,
औरों की नजरों में खुद को
कुछ साबित करना ही भाया !

अपनी इक तस्वीर बनायी
मन मंदिर में उसे सजाया,
जरा ठेस जो लगी कभी भी
दिल आंसुओं से भर आया !

जीवन की अब शाम हो चली
खेल वही पुराना चलता,
कुछ न कुछ करके दिखला दें
न होने से मन न भरता !

न जाने क्या मिल जायेगा
नाम यदि रह भी जायेगा,  
संतोषी यदि हुआ न अंतर
चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !

अनिता निहालानी
२९ अप्रैल २०११  

Tuesday, April 26, 2011

पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे


पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे 

नृत्य समाया हर मुद्रा में
उर में वीणा की झंकार
कंठ उगाए गीत मधुरिमा
कहाँ छिपा था इतना प्यार ?

आधी रात उजाला बिखरा
नयनों में ज्यों भरी पुकार
जागे-जागे स्वप्न हो गए
लगता है कोई चमत्कार !

पुलक उठे है पोर-पोर में
धड़क रहा है यूहीं दिल
कोई खबर भोर की लाए
क्या करीब है अब मंजिल ?

इच्छा, ज्ञान, क्रिया शक्ति के
पार हुआ मन अब मुक्ति के
खुले पट सब स्पष्ट हो गया
पुष्प खिले हैं जब भक्ति के !

नर्तक कौन, कौन कवि है
कौन सुनाये, सुनता वीणा
कौन तलाश रहा मंजिल को
कोई भी नही वहाँ दीखता !

एक तत्व का खेल है सारा
वही प्रिय वही प्रियतम प्यारा
स्वयं ही गाये झूमे स्वयं ही
प्रेम गली में न दो का पसारा !

अनिता निहालानी
२७ अप्रैल २०११

   

Monday, April 25, 2011

हृदय वृक्ष से शब्द झरे



हृदय वृक्ष से शब्द झरे

हृदय वृक्ष से शब्द झरे कुछ अनायास ही
ज्यों बिखराएँ आँसूं आँखें हो उदास सी !

हवा चली औ शब्द उड़ गए
सँग मेघ के फिर बिखर गए

बूंदों की लड़ियों सँग आकुल
पानी की झड़ियों में व्याकुल

यूँ ही डोलते राज खोलते अनायास ही
ज्यों बिखराएँ आँसूं आँखें हो उदास सी !

शब्द कभी कोमल बन जाते
बन माला उर से लिपटाते

कभी क्रुद्ध हो दूर भागते
बेगाने से रहे सताते

यूँ ही चिढ़ाते कभी बुलाते अनायास ही
 ज्यों बिखराएँ आँसूं आँखें हो उदास सी !

अनिता निहालानी
२५ अप्रैल २०११ 

Thursday, April 21, 2011

मौन धारे झर गया भीतर समन्दर


मौन धारे झर गया भीतर समन्दर
रिक्तता को भर गया चुपचाप इक स्वर
मौन धारे झर गया भीतर समन्दर !
दृग झुके कर जुड़ गए
पग थमे फिर मुड गए
अल्पता को हर गया अन्जान इक स्वर
मौन धारे झर गया भीतर समन्दर !
स्वर नहीं वह आरती का
न गीत वन्दन भारती का
तप्तता को हर गया वरदान सा स्वर
मौन धारे झर गया भीतर समन्दर !
ताल सुर से बद्ध न था
शास्त्र से सम्बद्ध न था
दग्धता ले दे गया अनुराग इक स्वर
मौन धारे झर गया भीतर समन्दर !
थी सुरीली कूक कोकिल कंठ में
जो जगाती हुक उर आकंठ में
शून्यता को भर गया मधुराग सा स्वर
 मौन धारे झर गया भीतर समन्दर !

अनिता निहालानी
२१ अप्रैल २०११



Tuesday, April 19, 2011

बहो, बस बहो


बहो, बस बहो

वीराने वन में, जलधार बन बहो
सोंधे सावन में, फुहार बन बहो !

उन्मुक्त पवन सँग, पत्तों से तुम तिरो
अनंत गगन में, विहंग से फिरो

विभक्त जगत में, सम्पूर्ण हो रहो
बहो, बस बहो !

बांधे न कोई तीर, ऐसी नाव तुम बहो
रोके न कोई राह, बने फकीर तुम बहो !

सिमटो न किसी तौर, निस्सीम हो रहो
रीते अधर में मुक्त, बस शून्य ही कहो

अनंत की हो चाह, अमरत्व ही गहो
बहो, बस बहो !

अनिता निहालानी
१९ अप्रैल २०११  

Saturday, April 16, 2011

कोई हमसा भीतर रहता


कोई हमसा भीतर रहता

गहरी निद्रा में सोये हम
तब भी भीतर जागे है वह,
बड़े धैर्य से करे प्रतीक्षा
हर सुख-दुःख का साथी है वह !

अंतिम स्वप्न वही भेजता
नींद टूटती कुछ जग जाते,  
पर कैसे नादान बने हम
करवट बदल-बदल सो जाते !

जाने कब से आस लगाये
कोई हमसा भीतर रहता,
एक अनोखे लोक का वासी
हँस कर हर नादानी सहता !

नहीं एक बंटे टुकड़ों में
मन में द्वंद्व सदा रहता है,
बोलो किससे बात करूं मैं
भीतर से कोई कहता है !

एक बनो और घर आ जाओ
स्वप्न लोक से बाहर आओ,
तुम ही तो मिल सकते मुझसे
अपने इस हक को तुम पाओ !

अनिता निहालानी
१६ अप्रैल २०११


Tuesday, April 12, 2011

क्या हो मन पीला हो जाये

क्या हो मन पीला हो जाये

पीला पत्ता डाल से बिछुड़ा
ले गयी पवन उड़ाये
क्यों न मन पीला हो जाये !

हुआ पीला पत्ता बैरागी
निज घर की ममता त्यागी,
नव पल्लव के स्वागत में
उड़ा खुशी से बड़भागी !

वीतरागी यदि मन पाखी भी
मुक्त गगन में दौड़ लगाये
क्या हो मन पीला हो जाये ?

हल्का होकर वन-वन डोले
अम्बर कभी धरा सँग होले
स्वयं मिटकर जीवनक्रम में
नव निर्माण की भाषा बोले !

सुख-दुःख की भट्टी में तपकर
जग से जगातीत हो जाये
क्यों न मन पीला हो जाये ?

अनिता निहालानी
१२ अप्रैल २०११

Saturday, April 9, 2011

मुक्ति का बाना सी लो

मुक्ति का बाना सी लो

चाहो तो इक पल में जी लो
घूंट अमरता का पी लो
तोड़ पुरातन श्रृंखलाओं को
मुक्ति का बाना सी लो !

या फिर सारी उम्र बिता दो
कदम कदम पर बंधन झेलो
बांध आत्मा को पहरों में
खुद जग के हाथों खेलो !

या जग में स्वयं को खो दो
या स्वयं में स्वयं को पालो
सत्य मार्ग पर चलो अकेले
या परम्परा के सँग हो लो !

अनिता निहालानी
९ अप्रैल २०११




Thursday, April 7, 2011

इस जग का खालीपन भर दें

इस जग का खालीपन भर दें

जाने कितने कोष छुपाये हम थक जाते
खो जाये ना, इस भय से मुस्कान छिपाते !
क्यों न मन को खाली कर दें
इस जग का खालीपन भर दें !
खोल झरोखों को अन्तर के
नया उजाला उनमें भर दें !

अनगिन निधियां छिपी हुई हैं मानव मन में
अंधियारों में बीज ढके हैं मानस भू में !
क्यों न स्वयं को हल्का कर दें
सारी निधियां यही लुटा दें
धूप, हवा, जल के छीटों से
क्यों न उनमें फूल खिला दें !

इक पावन सी पहले भीतर जगह बना लें
अपने हिस्से की खुशियाँ फिर जग से ले लें !
बस थोड़ा सा उद्यम करके
पल-पल मन को चेतन रख के
कुछ न कुछ इस जग को देके
हम रह सकते कमल सरीखे !

अनिता निहालानी
७ अप्रैल २०११   

Tuesday, April 5, 2011

नियति है मिलन अपना

नियति है मिलन अपना

तुम कसो कसौटी पर
लो चाहे कितनी ही परीक्षाएं
चूर-चूर कर डालो वह अभिमान
जो मुझे तुमसे दूर किये हुए है
न रहे शेष कोई आस
न चाह
हो जाये जीते जी मृत्यु
न उठे कोई सवाल न जगे प्रतिक्रिया
पत्थर की मानिंद सहूँ
तपन, बौछार और बर्फीली पवन
हो जाये जर्जर तन
मर जाये भले मन
हूँ मैं तैयार
तुम करो वार
इस पीड़ा के पीछे छुपा है आनंद
मरता है जब बीज  
पौधा जन्मता है उसी क्षण
मरना होगा इस जिजीविषा को
अस्मिता को भी
हर उस शै को
जो तुम्हें मुझसे जुदा करती है
परखो मुझे
डालो परीक्षाओं में
चाहे जितना घिसो
तपाओ मुझे
 मेरी नियति है वह मिलन जो
होगा मेरा तुमसे !

अनिता निहालानी
५ अप्रैल २०११

Monday, April 4, 2011

वासंतिक नवरात्र

वासंतिक नवरात्र

नव वर्ष का शुभ आगमन
चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा,
नव संवत्सर हुआ आरम्भ  
प्रकृति मन मोहक सुखदा  !

स्रष्टि हुई आरम्भ इसी दिन  
झूलेलाल की जन्म जयंती, 
विक्रम संवत का शुभारम्भ
नवरात्र का प्रथम दिवस भी !

आद्याशक्ति की करें आराधना
घर-घर घट की हुई स्थापना,
दक्षिण भारत में मने उगादि
विश्व के मंगल की कामना !

शक्ति से ही सृजन है संभव
शक्ति से ही जग परिपालन
शक्ति बिन संहार असम्भव
युगों युगों से शक्ति पूजन !

अनिता निहालानी
४ अप्रैल २०११


Friday, April 1, 2011

पंचतत्व महादानी हैं

पंचतत्व महादानी हैं


बड़े प्यार से हर शै थामे
इक नीला सा मंडप अनंत,
आसमान की चादर ओढ़े
घूम रहे नक्षत्र निर्द्वन्द्व !

गति भरे अनिल कण-कण में
शहर बादलों के बस जाते,
महासागरों से ले अमृत
बूंद-बूंद उनमें भर जाते !

रवि धरे है जाने कब से
लपटों का इक महा बवंडर,
सृष्टि का यह चक्र चलाए
अग्नि का इक घोर समन्दर !

श्यामल धरती अंकुआती है
पोषण करती संतानों का,
युगों- युगों से धन-धान्य दे
उन्नत करती बलवानों को !

देते रहने में सुख मानें
पंचतत्व महादानी हैं
तृप्त सदा स्वयं में रहते
पंचभूत महाज्ञानी हैं !

अनिता निहालानी
१ अप्रैल २०११