Friday, November 27, 2015

श्रीराम का कौसल्याजी के भवन में जाना और उन्हें अपने वनवास की बात बताना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

विंश सर्गः

राजा दशरथ की अन्य रानियों का विलाप, श्रीराम का कौसल्याजी के भवन में जाना और उन्हें अपने वनवास की बात बताना कौशल्या का अचेत होकर गिरना और श्रीराम के उठा देने पर उनकी और देखकर विलाप करना

उधर पुरुष सिंह राम ज्यों निकले, आर्तनाद प्रकटा भीतर से
अंतः पुर की राज स्त्रियाँ, व्याकुल हो कहती थीं दुख से 

बिना पिता की आज्ञा के भी, स्वतः कार्य करते रक्षक बन
वन को जायेंगे राम वे, अंतः पुर आश्रय रघुनन्दन

माँ समान ही सदा मानते, कुपित कभी न होते थे
नहीं दिलाते क्रोध किसी को, रूठों को मना लेते थे

राजा की मति मारी गयी क्या, बड़े खेद की बात हुई ये
राम का यह परित्याग कर रहे, हैं विनाश पर तुले हुए

राजा को ऐसे वचनों से, सभी रानियां कोस रही थीं
बछड़ों से बिछुड़ी ज्यों गौएँ, उच्च स्वर से क्रन्दन करतीं

अंतः पुर का आर्तनाद सुन, दशरथ लज्जित हुए अति
पुत्रशोक से हो संतप्त, सिमट गये बिछौने में ही

श्रीराम जो थे जितेन्द्रिय, स्वजनों के दुःख से हो पीड़ित
गज सम दीर्घ श्वास खींचते, माँ के भवन गये भाई संग

एक परम पूजित वृद्ध को, वहाँ द्वार पर बैठे देखा
अन्य जनों ने, वहाँ खड़े जो, उन्हें देख जयकार किया

पहुंचे जब दूजी ड्योढ़ी में, वेदज्ञ ब्राह्मण वहाँ थे
तीजी पर स्त्रियाँ खड़ी थीं, कर प्रणाम बढ़े जब आगे

हर्षित हो वे गयीं महल में, माता को संदेश दिया
रात्रि जागरण करके वह, करती थीं विष्णु की पूजा

वस्त्र रेशमी पहन हो हर्षित, व्रत परायण वह होकर 
अग्नि में देती आहुति, मन्त्रों का उच्चारण कर 

 देवकार्य के लिए बहुत सी, सामग्री वहाँ रखी थी
रघुनन्दन ने देखा आकर, माँ तर्पण कार्य करती थी

प्रिय पुत्र को लख कौसल्या, उनकी तरफ बढ़ी हो हर्षित
मानो कोई अश्वा आये, निज बछड़े को देख उल्लसित

गले लगा, मस्तक सूँघा, जब राम ने किया प्रणाम
पुत्र स्नेहवश बोली माता, आयु, धर्म व मिले सम्मान

अब तुम जाकर मिलो पिता से, अभिषेक आज ही होगा
आसन दिया राम को फिर, भोजन का आग्रह किया

स्पर्श मात्र किया आसन का, फिर कुछ कहने को उद्यत
विनयशील स्वभाव से थे वे, माँ के सम्मुख मस्तक नत

दंडक वन उन्हें जाना था, करें आज्ञा लेने का उपक्रम
निश्चय ही तुम नहीं जानती, हुआ महान भय उपस्थित

जो बात मैं अभी कहूँगा, सीता, अनुज, तुम्हें दुःख होगा
 आसन की अब नहीं जरूरत, अब तो मैं अरण्य जाऊँगा

कुश की ही चटाई पर अब, समय आ गया है, बैठूं
कंद-मूल फल खाकर ही, निर्जन वन में निवास करूं

युवराज अब भरत बनेंगे, चौदह वर्ष मुझे वनवास
वल्कल आदि वस्त्र पहन, जंगल में करूंगा वास

यह अप्रिय बात सुनी जब, कौशल्या आ गिरी धरा पर
शालवृक्ष की शाखा जैसे, या स्वर्ग से देवी भू पर

जीवन में दुःख न पाया था, नहीं योग्य थीं दुःख पाने के
कटी हुई कदली की भांति, भू पर पड़ीं अचेत दशा में

श्रीराम ने शीघ्र उठाया, दिया हाथ का उन्हें सहारा
अंगों की धूल भी पोंछी, हुई थी जिनकी दीन दशा

भारी बोझ उठाया जिसने, दूर थकावट करना चाहे
लोट-पोट होती धरती पर, जो घोड़ी फिर उठना चाहे

उसकी भांति ही अंगों पर, लिपट गयी थी धूल अति
कौशल्या हुईं अति व्याकुल, अस्त व्यस्त सी खड़ी हुईं     

कौशल्या ने सुख ही देखा था, उसके ही योग्य थीं वह
लक्ष्मण भी सुन लें जिनको, दुःख से कातर वचन कहे यह

यदि तुम्हारा जन्म न होता, मात्र यही शोक रहता
भारी दुःख जो आज आ पड़ा, वन्ध्या होने पर न होता
   





Thursday, November 5, 2015

श्रीराम की कैकेयी के साथ बातचीत और वन में जाना स्वीकार करके उनका माता कौसल्या के पास आज्ञा लेने के लिए जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकोनविंशः सर्गः

श्रीराम की कैकेयी के साथ बातचीत और वन में जाना स्वीकार करके उनका माता कौसल्या के पास आज्ञा लेने के लिए जाना

 थे अप्रिय वचन अति वे, मृत्यु समान कष्टदायक भी
किन्तु व्यथित न हुए राम सुन, कैकेयी से बात कही

ऐसा ही हो, माँ जाऊँगा, जटा, चीर धारण करके मैं
किन्तु जानना यह चाहता, पिता बोलते नहीं क्यों मुझसे

दुर्जय हैं वे और समर्थ, शत्रु का दमन करने में
हो प्रसन्न पहले की भांति, नहीं बोलते हैं मुझसे

क्रोध करो न इस प्रश्न पर, निश्चय ही वन मैं जाऊंगा
 पिता हितैषी और गुरु हैं, हर आज्ञा इनकी मानूँगा

किन्तु एक ही दुःख है मुझको, स्वयं क्यों न यह बात कही
भरत हेतु सब तज सकता हूँ, सिर्फ तुम्हारे कहने पर ही

क्यों न फिर उनके कहने पर, वह भी प्रिय तुम्हारा जो 
 नहीं करूंगा वह कार्य, यह मेरी ओर से इन्हें कहो

धीरे-धीरे अश्रु बहाते, पृथ्वीनाथ क्यों तकें धरा को
लज्जाशील बने हैं राजा, इन्हें शीघ्र आश्वासन दो

आज ही राजा की आज्ञा से, द्रुत अश्वों पर जाएँ दूत
भरत आयें मामा के घर से, मैं जाऊँ वन को तुरंत

श्रीराम की बात सुनी जब, हुई प्रसन्न अति कैकेयी
वन जायेंगे कर विश्वास, प्रेरित कर फिर यह बोली

ठीक कह रहे, ऐसा ही हो, दूत बुलाने भरत को जाएँ
तुम उत्सुक स्वयं वन जाने को, शीघ्र अति यह भी हो जाये

लज्जित होने के कारण ही, राजा स्वयं नहीं कहते यह
दुःख न करो इसका तुम कोई, नहीं विचारणीय है यह

जाओगे नहीं तुम जब तक, नहीं स्नान न करेंगे भोजन
हा ! कहकर हुए मूर्छित, शोक में डूबे राजा यह सुन

गिरे सुवर्ण भूषित पलंग पर, उन्हें उठाया श्रीराम ने
चोट खाए अश्व की भांति, जाने को उतावले हुए वे

नहीं चाहता रहना जग में, बन कर मैं उपासक धन का
मैंने भी ऋषियों की भांति, लिया आश्रय शुद्ध धर्म का  

पूज्य पिता का कार्य करूँगा, प्राणों का भी नहीं लोभ है
पूर्ण हुआ ही समझो इसको, इससे बढ़कर नहीं धर्म है

यद्यपि नहीं कहा उन्होंने, फिर भी वन में वास करूँगा
मुझ पर है अधिकार तुम्हारा, आज्ञा का पालन करूँगा

किन्तु न मुझसे कहकर तुमने, कहा पिता से इस कार्य को
कष्ट दिया उनको, लगता है, नहीं जानती कुछ तुम मुझको

कौसल्या माँ से लूँ आज्ञा, सीता को भी समझा-बुझा लूँ
इसके बाद आज ही मैं, दंडक वन को प्रस्थान करूं

भरत करें राज्य का पालन, सेवा करें पिता की वह
ऐसा प्रयत्न सदा तुम करना, क्योंकि धर्म सनातन है यह

श्रीराम का वचन सुना तो, दशरथ हुए अति व्याकुल
कुछ न बोल सके दुःख से वे, फूट-फूट कर रोये केवल

महातेजस्वी श्रीराम तब, कर प्रणाम पिता-माता को
बाहर आये उस भवन से, निज सुहृदों से मिलने को

इस अन्याय को देखकर, सुमित्रानंदन कुपित हुए
तथापि अश्रु आँखों में भर, उनके पीछे-पीछे गये

वन जाने की आकांक्षा अब, उदित हुई राम के मन में
अभिषेक की सामग्री को, कर अनदेखा आगे बढ़ गये

अविनाशी कांति से युक्त थे, शोभा उनकी थी पहले सी
जैसे क्षीण हुआ चन्द्रमा, त्याग नहीं करता शोभा की

राज्य छोड़ने का अल्प भी, नहीं विकार चित्त पर आया
लोककमनीय श्रीराम थे, जीवन्मुक्त हो ज्यों महात्मा

सुंदर छत्र लगाने की तब, की मनाही, चंवर भी रोके
रथ लौटा, कर विदा सभी को, कौसल्या के महल में गये

मन को वश में कर रखा था, नहीं विकार किसी ने देखा
स्वाभाविक उल्लास न त्यागा, जैसे चन्द्र शरदकाल का

मधुर वचन से सम्मानित कर, सब लोगों को विदा किया
गये निकट अपनी माता के, पीछे गये पराक्रमी भ्राता   

गुणों में थे वे राम समान, किया प्रवेश उस भव्य भवन में
लौकिक दृष्टि से हुई थी हानि, किन्तु न दुख माना राम ने


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ. 

Tuesday, November 3, 2015

कैकेयी का कठोरतापूर्वक अपने मांगे हुए वरों का वृत्तांत बताकर श्रीराम को वनवास के लिए प्रेरित करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


अष्टादशः सर्गः

श्रीराम का कैकेयी से पिता के चिंतित होने का कारण पूछना और कैकेयी का कठोरतापूर्वक अपने मांगे हुए वरों का वृत्तांत बताकर श्रीराम को वनवास के लिए प्रेरित करना 

अति व्यथा तब हुई राम को, सुनी बात जब कैकेयी की
धिक्कार है मुझ पर ! बोले, क्योंकर तुमने यह बात कही

वरण अग्नि का कर सकता हूँ, महाराज के कहने से मैं
भक्षण भी कर सकता हूँ विष, सागर में जा सकता मैं

गुरू, पिता हैं और हितैषी, आज्ञा पा सब कर सकता
पूर्ण करूंगा मुझे बताओ, जो अभीष्ट है राजा का

द्वंद्व नहीं था उनके मन में, सरल, सत्यवादी थे वे
बात सुनी जब कैकेयी ने, दारुण वचन कहे ये उनसे

रघुनंदन ! प्राचीन बात है, देवासुर संग्राम हुआ था
बिंधे पिता थे शत्रु बाण से, मैंने की थी उनकी रक्षा

हो प्रसन्न दिए थे दो वर, आज उन्हीं को मैंने माँगा
राज्य मिले भरत को पहला, दूजे से वनवास तुम्हारा

यदि चाहते सत्य की रक्षा, पिता की आज्ञा को मानो
चौदह वर्ष गुजारो वन में, पिता को सत्य सिद्ध करो

जो सामान जुटाया उससे, राजतिलक भरत का हो
तुम त्यागो इस अभिषेक को, चीर, जटा धारण कर लो

कोसल की इस वसुधा का, जो पूर्ण रत्नों, अश्वों से
शासन करें भरत उसका, बस इतना ही माँगा मैंने

कष्ट सोच तुमसे वियोग का, करुणा से पीड़ित हैं राजा
साहस नहीं तुम्हें देख लें, मुख सूखा जाता है इनका

तुम आज्ञा का पालन करके, राजा को संकट से उबारो
सत्य की रक्षा हो इससे, दिए वचन का भी पालन हो

शोक नहीं हुआ राम को, कैकेयी के जब वचन सुने
किन्तु व्यथित हुए थे राजा, वियोगजनित दुःख के भय से

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.




Monday, November 2, 2015

श्रीराम का कैकेयी से पिता के चिंतित होने का कारण पूछना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

अष्टादशः सर्गः

श्रीराम का कैकेयी से पिता के चिंतित होने का कारण पूछना और कैकेयी का कठोरतापूर्वक अपने मांगे हुए वरों का वृत्तांत बताकर श्रीराम को वनवास के लिए प्रेरित करना

महल में जाकर श्रीराम ने, देखा पिता को दुःख में डूबे
सुंदर आसन, संग कैकेयी, थे दयनीय से वे बैठे

सूख गया था मुख उनका, किया राम ने नम्र प्रणाम
सावधान हो उसके बाद, कैकेयी को भी किया नमन

दीनदशा में पड़े राजा ने, राम ! कहा फिर चुप हो गये
देख सके न उनसे बोले, आँखों में अश्रु भर आये

राजा का वह रूप देखकर, श्रीराम भी हुए भयभीत
जैसे किसी सर्प को छुआ, व्यथित हो गया उनका चित्त

राजा की इन्द्रिय थीं व्याकुल, शोक और संताप से दुर्बल
लंबी श्वासें भरते थे वे, चित्त अति था उनका व्याकुल

सागर जैसे क्षुब्ध हो गया, सूर्य को ग्रहण लगा राहु का
ऐसे दुखी दीख पड़ते थे, महर्षि ने ज्यों झूठ बोला हो

क्या कारण हो सकता इसका, श्रीराम न सोच सके   
पूर्णिमा के समुद्र की भांति, वे अत्यंत विक्षुब्ध हो उठे

पिता के हित में जो थे तत्पर, लगे सोचने दुःख का कारण
आज ही ऐसी बात हुई क्या, पिता न बोलें हो प्रसन्न

कुपित हुए भी अन्य दिन तो, सुख से जो जाते थे भर
आज क्लेश क्यों होता इनको, मेरी ओर दृष्टिपात कर

यह सोचकर दीन हो गये, शोक से कातर, मुख फीका
कर प्रणाम तब कैकेयी को, उनसे ही कारण पूछा

माँ, मुझसे अनजाने में ही, क्या कोई अपराध हो गया
कुपित हुए पिता क्या मुझसे, दो इनको अब तुम्हीं मना

सदा प्यार करते थे मुझसे, आज दुखी क्यों लगते हैं
छाया है विषाद मुखड़े पर, मुझसे नहीं बोलते हैं

क्या कोई व्याधि तन की, या मन चिंता सताती इनको
ऐसा प्रायः होता दुर्लभ, सुख ही सुख मिले मानव को

भरत, शत्रुघ्न या माताएं, क्या किसी का हुआ अमंगल
महाराज को दुःख देकर, जीना चाहूँ न मैं पल भर  

जिसके कारण हुआ जन्म वह, पिता देवता है प्रत्यक्ष
जीते जी उसे दुःख देगा, जग में क्यों कोई मानव

अभिमान या रोषपूर्वक, तुमने ही तो कुछ नहीं कहा
सच्ची बात पूछता तुमसे, क्यों इनका मन दुःखी हुआ

किस कारण आया संताप, पहले कभी नहीं देखा
कैकेयी ने कहे वचन तब, जब राम ने उससे पूछा

नहीं कुपित हैं राजा, राम !, न ही कोई कष्ट हुआ  
मन में कोई बात है इनके, बोल न पाते भय तुम्हारा

तुम हो प्रिय, अप्रिय बात, तुमसे न कह पाते ये
की प्रतिज्ञा मेरे सम्मुख, पूर्ण जिसे करना है तुम्हें

 पहले तो करके सत्कार, मुंह माँगा दिया वरदान
अब गँवार जनों की भांति, करते हैं यह पश्चाताप

‘मैं दूंगा’ कह ऐसा, दे वर, अब उसका निवारण करते
निकल गया जो पानी उसको, बाँध बनाकर अब रोकते

सत्य ही है मूल धर्म का, सत्पुरुषों का यह है निश्चय
ऐसा न हो सत्य त्याग दें, राम ! तुम्हारे कारण यह

यदि राजा जो कहना चाहें, शुभ हो चाहे अशुभ वह बात
यदि उसका पालन करो तुम, कहूँ तभी मैं पुनः वह बात

यदि नष्ट न हो वह बात, आज्ञा पालन करो तुम उनकी
स्वयं तो ये कुछ न कहेंगे, किन्तु मैं सब तुम्हें कहूँगी