Wednesday, June 29, 2016

सीता और लक्ष्मण सहित राम का रात्रि में तमसा तट पर निवास

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

षट्चत्वारिंशः सर्गः

सीता और लक्ष्मण सहित राम का रात्रि में तमसा तट पर निवास, माता-पिता और अयोध्या के लिए चिंता तथा पुरवासियों को सोते छोड़कर वन की ओर जाना

तमसा का सुंदर तट देख, लख सीता को कहा भाई से
पहली रात्रि प्राप्त हुई है, जब से हम निकले हैं घर से

उत्सुक नहीं नगर हित होना, देखो इस सूने वन को
पशु-पक्षी निज स्थान पर, बोल रहे अपनी बोली को

गूँज रहा है वन यह सारा, मानो देख हमें ये रोते
शोक मनाएगी अयोध्या, संशय नहीं मुझे है इसमें

मुझमें, तुममें, महाराज में, भरत और शत्रुघ्न में भी
अनुरक्त सद्गुणों के कारण, कितने ही अयोध्या वासी

पिता और माता के हेतु, शोक अति होता है मुझको
अश्रु निरंतर बहा रहे हैं, दृष्टि न खो बैठें वे दोनों  

भरत अति हैं धर्मात्मा, धर्म, अर्थ, काम के ज्ञाता
वे सांत्वना देगें उनको, अनुकूल वचनों के द्वारा

कोमल अति स्वभाव भरत का, स्मरण करता बार-बार जब
माता-पिता के लिए मुझे, चिंता अधिक नहीं होती तब

 श्रेष्ठ तुम्हारा है संग आना, क्योंकि यदि न तुम आते
कोई सहायक मैं ढूँढ़ता, सीता की रक्षा के लिए

फल-मूल यहाँ मिल सकते, किन्तु आज जल ही पियूँगा
यही सही जान पड़ता है, फिर सुमन्त्र से वचन यह कहा


Tuesday, June 28, 2016

नगर के वृद्ध ब्राह्मणों का श्रीराम से लौट चलने के लिए आग्रह करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

पञ्चचत्वारिंशः सर्गः

श्रीराम का पुरवासियों से भरत और महाराज दशरथ के प्रति प्रेम-भाव रखने का अनुरोध करते हुए लौट जाने के लिए कहना; नगर के वृद्ध ब्राह्मणों का श्रीराम से लौट चलने के लिए आग्रह करना तथा उन सबके साथ श्रीराम का तमसा तट पर पहुँचना 

ब्राह्मणों के हितैषी हो तुम, इसीलिए हम पीछे आते
अग्निदेव भी चढ़ कंधों पर, अनुसरण तुम्हारा करते

श्वेत छत्र जो हमने धारे, शरद काल के बादल जैसे
वाजपेय यज्ञ में ये सब, हम सभी को प्राप्त हुए थे

श्वेत छत्र राजकीय जो, नहीं पिता से तुमने पाया
 किरणों से संतप्त हुए हो, हम तुमपर करेंगे छाया

वेद मन्त्रों के पीछे ही, बुद्धि सदा हमारी चलती
बनी है वही वनवास का, अनुसरण अब करने वाली

परम धन हैं वेद हमारे, हृदयों में सदा जो स्थित
सदा घरों में ही रहेंगी, स्त्रियाँ घर में सुरक्षित

पुनः नहीं निश्चय करना, कर्त्तव्य हेतु अब अपने
किया है निश्चय साथ चलेंगे, तो भी हम इतना कहते

ब्राह्मण आज्ञा का तुमने भी, पालन यदि नहीं किया  
कौन दूसरा प्राणी जग में, धर्म मार्ग पर चल सकेगा  

केश हमारे श्वेत हुए हैं, धूल भरी है अब इनमें
मस्तक झुका कर दंडवत, लौट चलो विनती यह करें

बहुत ब्राह्मण ऐसे भी हैं, यज्ञ किया आरम्भ जिन्होंने
यज्ञों की समाप्ति इनके, निर्भर लौटने पर तुम्हारे

स्थावर, जंगम सभी भक्त हैं, सब तुमसे प्रार्थना करते
स्नेह दिखाओ उन भक्तों पर, जो स्वयं कह नहीं सकते

वेगहीन हैं वृक्ष सभी ये, चल न सकते साथ तुम्हारे
सनसन स्वर वायु से होता, उनसे मानो तुम्हें पुकारें

त्याग चेष्टा दी जिन्होंने, चारा चुगने भी न जाते
वे पक्षी भी करें प्रार्थना, क्योंकि तुम कृपा करते

इस प्रकार पुकार लगाते, ब्राह्मणों पर कृपा करने
तमसा पड़ी दिखाई उनको, ज्यों राम को लगी रोकने

पहुंच वहाँ थके घोड़ों को, खोल सुमन्त्र ने टहलाया
नहला उनको देकर जल, चरने हेतु तब छोड़ दिया



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Monday, June 27, 2016

श्रीराम का पुरवासियों से भरत और महाराज दशरथ के प्रति प्रेम-भाव रखने का अनुरोध करते हुए लौट जाने के लिए कहना;

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

पञ्चचत्वारिंशः सर्गः

श्रीराम का पुरवासियों से भरत और महाराज दशरथ के प्रति प्रेम-भाव रखने का अनुरोध करते हुए लौट जाने के लिए कहना; नगर के वृद्ध ब्राह्मणों का श्रीराम से लौट चलने के लिए आग्रह करना तथा उन सबके साथ श्रीराम का तमसा तट पर पहुँचना

उधर पराक्रमी श्रीराम ने, वन की ओर प्रस्थान किया
 पीछे चले अयोध्यावासी, उनके प्रति अनुराग था जिनका

जल्दी लौट के वापस आये, जिसके प्रति कामना ऐसी
दूर तक न पहुँचाने जाएँ, ऐसी है मान्यता जग की

कह यह लौटाया राजा को, तब भी जो थे रथ के पीछे
राम प्रिय थे जिन्हें चन्द्र से, जन वे नहीं वापस लौटे

प्रजाजनों ने की प्रार्थना, कहा राम से लौट चलें
पिता के सत्य की रक्षा हित, किंतु वे बढ़ते ही गये

स्नेह भरी दृष्टि से देखा, मानो नयनों से पीते हों
निज सन्तान समान प्रिय थे, प्रेमपूर्वक बोला उनको

है मेरे प्रति जो प्रेम व आदर, हो वह मेरी ही खातिर
और अधिक ही भरत के हेतु, है उनका आचरण सुंदर

भरत चरित्र अति हितकारी, कैकेयी का आनंद बढ़ाते
प्रिय आपका सदा करेंगे, छोटे हैं पर बड़े ज्ञान में

हैं पराक्रमी पर कोमल भी, योग्य नरेश आपके होंगे
हर भय का करेंगे निवारण, युक्त हुए राजोचित गुण से

मुझसे भी बढ़कर योग्य हैं, इसीलिए युवराज बन रहे
सदा आज्ञा मानें उनकी, मेरा सुख है सदा इसी में

शोक ग्रस्त न हों राजा, सदा करें चेष्टा इसकी
रखें याद सदा यह विनती, मेरा प्रिय करने हेतु ही

दशरथ नंदन श्रीराम ने, ज्यों-ज्यों दृढ़ता ही दिखाई
उनको ही स्वामी मानें, यह इच्छा होती प्रबल गयी

दीन हुए से अश्रु बहाते, पीछे-पीछे चले जा रहे
मानो राम उन्हें खींचते, बाँध गुणों में लिए जा रहे

उनमें से कई ब्राह्मण थे, ज्ञान, अवस्था तप में आगे
कांप रहे थे सिर कितनों के, दूर से ही वे ऐसा बोले

तीव्र गति से चलने वाले, लौटो अश्वों ! बनो हितैषी
कान तुम्हारे बहुत बड़े हैं, सुन लो यह याचना हमारी

श्रीराम हैं विशुद्धात्मा, दृढ़ता से व्रत पालन करते
नगर की ओर इन्हें लौटा लो, वापस ले आओ वन से

वृद्ध ब्राह्मणों का विलाप सुन, उतरे राम रथ से नीचे
धीरे-धीरे कदम बढ़ाते, तीनों पैदल ही अब चलते  

वात्सल्य गुण की प्रधानता, दया भरी हुई दृष्टि में
इसीलिए वे रथ के द्वारा, उन्हें छोड़ न बढ़ पाए

जाते देख उन्हें वन को, वृद्ध ब्राह्मण घबरा गये
लौट चलो वापस हे राम !, हो संतप्त कहा उनसे ये    


Friday, June 24, 2016

सुमित्रा का कौसल्या को आश्वासन देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

चतुश्चत्वारिंशः सर्गः

सुमित्रा का कौसल्या को आश्वासन देना

कौसल्या का देख विलाप, श्रेष्ठ नारियों में जो थी
धर्मशीला सुमित्रा ने तब, धर्मयुक्त यह बात कही

गुणवान, पुरुषों में श्रेष्ठ, पुत्र आपके महाबली हैं
अश्रु बहाना उनके हित, रोना-धोना व्यर्थ ही है

पिता को सत्य बनाने हित जो, राज्य त्याग वन चले गये
उत्तम धर्म में स्थित हैं वे, सुखमय जो दोनों लोकों में

लक्ष्मण हैं निष्पाप दयालु, शोक नहीं उचित हित उनके  
श्रीराम के प्रति समर्पित, लाभ ही है उनका इसमें

सुख भोगने योग्य जो सीता, भलीभांति सोच समझ कर
करती है अनुसरण पति का, कोई नहीं जिनसे बढ़कर

कीर्तिमयी ध्वजा फहराते, पालन करते सत्यव्रत का
धर्म स्वरूप तुम्हारे सुत को, प्राप्त नहीं श्रेय कौन सा

 पावनता व माहात्म्य उनका, निश्चय ही सूर्य जानते
अपनी किरणों द्वारा उनके, तन को तप्त नहीं करते

हर ऋतु में मंगलमय वायु, सेवा करेगी श्रीराम की
रात्रि में चाँदनी शीतल, किरणों का आलिंगन देगी

तिमिध्व्ज के पुत्र को मारा, श्रीराम ने जब युद्ध में
दिव्यास्त्र प्रदान किये थे, उन वीर को विश्वामित्र ने

बाहुबली वे शूरवीर हैं, महलों में जैसे रहते थे
स्वयं का ही आश्रय लेकर, निडर हुए रहेंगे वन में  

शत्रु प्राप्त हुए विनाश को, बाणों का लक्ष्य बन जिनके
कैसे नहीं रहेंगे प्राणी, उन राम के शासन में

शारीरिक शोभा जैसी है, है पराक्रम जैसा उनका
शक्ति भी कल्याणकारिणी, उससे जान यही पड़ता

शीघ्र लौटकर आयेंगे वे, राज्य प्राप्त करेंगे अपना
वन में रहें या रहें नगर में, नहीं अहित हो सकता उनका

सूर्य के भी सूर्य राम हैं, अग्नि के भी दाहक हैं
प्रभु के प्रभु, क्षमा क्षमा की, देव देव के, भूत उत्तम हैं

होंगे राज्य पर अभिषिक्त, पुरुषशिरोमणि राम शीघ्र ही
पृथ्वी, सीता व लक्ष्मी, पा साथ इन तीनों का ही

जिनको नगर से जाते देख, व्याकुल है जनसमुदाय अति
चीर धरे जिन वीर के पीछे, सीता रूप में गयी लक्ष्मी

क्या दुर्लभ है उनको जग में, जिनके आगे चलें लक्ष्मण
मोह, शोक को त्यागो देवी !, कहती हूँ मैं सत्य वचन  

नवोदित चन्द्रमा समान तुम, हे कल्याणी ! अपने सुत को
करते हुए नमन देखोगी, अपने इन चरणों में उनको

राजभवन में हो प्रविष्ट, राजपद पर हो आसन्न
अश्रु बहाओगी हर्ष के, देख राम को तुम सम्पन्न

उनके लिए न शोक करो, अशुभ नहीं कोई उनमें
शीघ्र उन्हें लौटे देखोगी, साथ लक्ष्मण, सीता के

धैर्य बंधाओ इन लोगों को, क्यों स्वयं हो इतनी व्याकुल
श्रीराम सा पुत्र मिला है, उचित नहीं होना आकुल

जैसे वर्षाकाल के बादल, करते हैं जल की वृष्टि
वैसे ही आनन्द के अश्रु, उन्हें देख तुम बरसाओगी

शीघ्र स्पर्श करेंगे आकर, राम तुम्हारे चरणों को
नहलाओगी हर्ष अश्रु से, जैसे धारा पर्वत को

वाकपटु, निर्दोष सुन्दरी, इसी तरह आश्वासन देती
कौसल्या को समझाकर, देवी सुमित्रा चुप हो गयी

कौसल्या ने वचन सुने जब, शोक विलीन हुआ सारा
जैसे शरद ऋतु का बादल, शीघ्र छिन्न-भिन्न हो जाता


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौवालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ



Thursday, June 23, 2016

कौसल्या और सेवकों की सहायता से राजा का कौसल्या के भवन में आना और श्रीराम के लिए दुःख का ही अनुभव करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्विचत्वारिंशः सर्गः

राजा दशरथ का पृथ्वी पर गिरना, श्रीराम के लिए विलाप करना, कैकेयी को अपने पास आने से मना करना और उसे त्याग देना, कौसल्या और सेवकों की सहायता से उनका कौसल्या के भवन में आना और वहाँ भी श्रीराम के लिए दुःख का ही अनुभव करना  

श्रेष्ठ वाहनों के चिह्न दिखते, किंतु राम न पड़े दिखाई
बार-बार लौट कर पीछे, रथ मार्ग पर दृष्टि लगाई

चंदन से चर्चित जो राम, उत्तम शय्या पर सोते थे
व्यजन डुलाती थीं स्त्रियाँ, हो भूषित अलंकारों से

ले आश्रय वृक्ष की जड़ का, निश्चय ही आज कहीं वे
काठ या पाहन पर सिर रख, भूमि पर ही शयन करेंगे

फिर अंगों में धूल लपेटे, दीन की भांति श्वास खींचते
शयन भूमि से उठेंगे ऐसे, हाथी ज्यों निकट निर्झर के

निश्चय ही वन के वासी, लोकनाथ उन महाबाहु को
उठकर जाते हुए देखेंगे, अनाथ की भांति ही उनको 

सुख भोगने के योग्य जो, जनक दुलारी प्रिय सीता
काँटों पर पैर पड़ने से, वन जाकर पाएगी व्यथा

वन कष्टों से अनभिज्ञ है, व्याघ्र आदि जन्तु हैं जहाँ
 निश्चय ही होगी भयभीत, गर्जन-तर्जन सुनकर उनका

सफल करे कामना अपनी, विधवा हो राज्य भोगे
बिना राम मैं नहीं बचूँगा, कैकेयी ही यहाँ रहे

भारी भीड़ से घिर कर राजा, शोकपूर्ण भवन में आये 
 कर विलाप उस पुरुष की भांति, मरघट से जो नहाके आये

देखा उन्होंने पुरी का हर घर, है सूना, बाजार बंद है
क्लांत, दुखी, दुर्बल लगते हैं, जो भी लोग नगर में हैं

राजमार्ग भी सूने लगते, देख नगर की यह अवस्था
जैसे मेघ में सूर्य छिपा हो, गये महल में चिंतित राजा  

श्रीराम के बिना महल वह, शांत सरोवर सा लगता था
जिसके नाग को गरुड़ ले गये, राजभवन अति दुखमय था

इस तरह विलाप करके, कहा द्वारपालों से तब यह
कौसल्या के घर पहुंचा दो, शांत वहीं होगा यह हृदय

अति विनय से द्वारपाल तब, कौसल्या के भवन ले गये 
वहाँ पलंग पर उन्हें लिटाया, मन से वे मलिन ही रहे

 पुत्रों व पुत्रवधु बिना, चन्द्रहीन आकाश सा लगता 
श्रीहीन भवन में आकर, राजा का दुख बढ़ता जाता 

उठा बाँह एक अपनी तब, उच्च स्वर में किया विलाप
हा राम ! तुम कब आओगे, हम दोनों का करते त्याग

जीवित रहेंगे नरश्रेष्ठ जो, चौदह वर्षों की अवधि तक
पुनः तुम्हें उर से लगाकर, वे ही सुखी बनेंगे तब

कालरात्रि के समान वह, आधी रात बीत गयी जब
कौसल्या से कहा राजा ने, दीर्घ श्वास खींच कर तब

देख नहीं पाता हूँ तुमको, दृष्टि राम के साथ गयी
स्पर्श करो तन एक बार, दृष्टि नहीं अब तक लौटी

आ निकट उनके तब बैठीं, कौसल्या व्यथित अति होकर 
करने लगीं विलाप कष्ट से, व्याकुल था उनका अंतर



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बयालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.