Thursday, March 20, 2014

राम जी के पूछने पर विश्वामित्रजी का उन्हें गंगाजी की उत्पत्ति की कथा सुनाना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

पंचत्रिंशः सर्गः

शोणभद्र पार करके विश्वामित्र आदि का गंगाजी के तट पर पहुंचकर वहाँ रात्रिवास करना तथा राम जी के पूछने पर विश्वामित्रजी का उन्हें गंगाजी की उत्पत्ति की कथा सुनाना

संग महर्षियों के मुनिवर ने, नदी के तट पर किया शयन
बीती रात प्रभात हुआ, तब, रामचन्द्र से कहा कथन

उठो राम ! अब हुआ सवेरा, करो तैयारी अब चलने की
नित्यनियम पूर्ण किये तब, राम हुए तैयार शीघ्र ही

शुभजल से परिपूर्ण हुआ यह, शोण भद्र का तट सुशोभित
किस मार्ग से पार करेंगे, यह अथाह हो रहा प्रतीत

जिस मार्ग से सदा महर्षि, शोण भद्र को करते पार
पहले से निर्णय कर रखा, उस पथ से हम जाएँ पार

बुद्धिमान मुनि से सुनकर, सभी चले वन शोभा लखते
दीर्घ मार्ग तय किया उन्होंने, पावन गंगा तट पर पहुंचे

हंसों और सारसों से थी, सेवित पुण्य सलिला भागीरथी
विधिवत किया स्नान सभी ने, पितरों का किया तर्पण भी

अग्निहोत्र कर भोजन पाया, अमृत सम था जो हविष्य
मुनि को घेर सभी बैठे तब, श्रीराम ने किया प्रश्न यह

भगवन ! मैं सुनना यह चाहूँ, बहने वाली तीन मार्ग से
तीन लोक में हो प्रवाहित, सिन्धु से मिली गंगा कैसे

प्रेरित होकर इस प्रश्न से, कही कथा गंगा की मुनि ने
कैसे हुई उत्पत्ति इसकी, कैसे पायी वृद्धि इसने  

हिमवान् एक पर्वत है, पर्वत राज व रत्नाकर भी
हिमवान की दो कन्याएं, अति सुंदर, अनुपमा भी

मेरू पर्वत की सुपुत्री, मेना प्रिय पत्नी है उसकी
मनोहारिणी, सुंदर मेना, उन कन्याओं की जननी

पहली कन्या गंगा जी हैं, ज्येष्ठ पुत्री हिमवान की
दूजी कन्या उमा कहाती, मेना के गर्भ से उपजी   




Friday, March 14, 2014

विश्वामित्रजी का कथा बंद करके आधी रात का वर्णन करते हुए सबको सोने की आज्ञा देकर शयन करना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

चतुस्त्रिंशः सर्गः

गाधि की उत्पत्ति, कौशिकी की प्रशंसा, विश्वामित्रजी का कथा बंद करके आधी रात का वर्णन करते हुए सबको सोने की आज्ञा देकर शयन करना 

बीत गयी है अर्ध रात्रि, अब सो जाओ कुछ देर को
कल यात्रा में विघ्न पड़े न, राम !, तुम्हारा कल्याण हो

निष्कम्प जान पड़ते हैं, वृक्षों का पत्ता न हिले
अंधकार से पूर्ण दिशाएं, पशु-पक्षी भी छिपे सो रहे

धीरे-धीरे संध्या बीती, तारों से भर गया आकाश
ज्योतिर्मय सहस्त्र नेत्र ज्यों, भर जाते अनुपम प्रकाश

शीतरश्मि चन्द्रमा मनों को, आह्लाद कर रहे प्रदान
यक्ष, राक्षसों के समुदाय, रात्रि में करते हैं विचरण

 हुए शांत कह ऐसा मुनिवर, मुनियों ने दिया साधुवाद
कुशपुत्रों का वंश सदा ही, रहता आया धर्म परायण

कुशवंशी महात्मा श्रेष्ठ, तेजस्वी ब्रह्मा के समान
सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी, सर्वश्रेष्ठ उनमें हैं आप  

इस प्रकार होकर आनन्दित, मुनियों द्वारा हुए प्रशंसित
अस्त हुए सूर्य की भांति, कौशिक मुनि हुए थे निद्रित

लक्ष्मण सहित राम को भी, विस्मय हुआ कथा यह सुनकर
की सराहना विश्वामित्र की, लेने लगे नींद वे सुखकर


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौतीसवां सर्ग पूरा हुआ.



Wednesday, March 12, 2014

गाधि की उत्पत्ति, कौशिकी की प्रशंसा,

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

चतुस्त्रिंशः सर्गः

गाधि की उत्पत्ति, कौशिकी की प्रशंसा, विश्वामित्रजी का कथा बंद करके आधी रात का वर्णन करते हुए सबको सोने की आज्ञा देकर शयन करना

रघुनन्दन से कहा मुनि ने, ब्रह्मदत्त जब चले गये
पुत्रेष्टि यज्ञ किया तब, पुत्रहीन राजा कुशनाभ ने

यज्ञ काल में राजा कुश ने, कुशनाभ को दिया आश्वासन
पुत्र पाओगे ‘गाधि’ नामक, परम धर्मात्मा तुम निज समान

अक्षय कीर्ति मिलेगी उससे, ऐसा कहकर राजर्षि कुश
प्रविष्ट हुए अनंत आकाश में, चले गये वे ब्रह्मलोक

वे परम धर्मात्मा ‘गाधि’, सुनो राम हे ! पिता थे मेरे
‘कौशिकी’ भी कहलाता, हुआ हूँ उत्पन्न कुश के कुल में

राघव ! मेरी ज्येष्ठ बहन भी, उत्तम व्रत का पालन करती
ऋचीक मुनि को ब्याही गयी थी, नाम था जिसका सत्यवती

 अनुसरण जब किया पति का, देह सहित वह स्वर्ग गयी
परम उदार महानदी बन, कौशिकी रूप में भू पर बहती

मेरी बहन जगत के हित में, ले आश्रय हिम आलय का
नदी रूप में हुई प्रवाहित, अति रमणीय वह पुण्य सलिला

उसके तट पर रहता हूँ मैं, बहन से मुझको स्नेह अति
सत्य धर्म में है प्रतिष्ठित, सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी  

सिद्धि हेतु आया सिद्धाश्रम, तज कर मैं सान्निध्य बहन का
सिद्धि प्राप्त हुई अब मुझको, है प्रताप तुम्हारे तेज का

शोणभद्र तटवर्ती देश का, तुमने जो परिचय पूछा था
अपनी, निज कुल उत्पत्ति का, विवरण तुमसे सभी कहा




Monday, March 3, 2014

ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति तथा उनके साथ कुशनाभ की कन्याओं का विवाह

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

त्रयसि्ंत्रशः सर्गः

राजा कुशनाभ द्वारा कन्याओं के धैर्य एवं क्षमा शीलता की प्रंशसा, ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति तथा उनके साथ कुशनाभ की कन्याओं का विवाह 

वही ब्रह्मदत्त राजा होकर, काम्पिल्या नगरी में रहते
थे सम्पन्न लक्ष्मी से वैसे, जैसे इंद्र स्वर्ग में बसते

तब नरेश कुशनाभ ने उनको, कीं समर्पित वे कन्यायें  
ब्रह्मदत्त ने किया विवाह, क्रमशः उनसे वे हर्षाये

स्पर्श हुआ उनके हाथों का, कुब्जदोष से हुईं रहित वे
उत्तम शोभा से सम्पन्न भी, स्वस्थ अति प्रफ्फुलित वे

वातरोग के रूप में आये, अब वायुदेव ने छोड़ दिया
कुशनाभ थे जान यह हर्षित, आदर सहित विदा किया

गन्धर्वी सोमदा ने भी, स्वागत किया यथोचित उनका
एक-एक कर हृदय से लगाया, अभिनन्दन किया सबका

  
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तैतीसवां सर्ग पूरा हुआ.