Sunday, November 28, 2010

भावांजलि

तुम हो ! तुम अपने हो प्रियतम
यह भान मुझे हर्षित करता,
दिन रात प्रेम की धार बहे
फिर भी न तृषित अंतर भरता !

ज्ञान मुक्त हो भयविहीन अंतर अपना
टुकड़ों में नहीं बंटा, हो साझा सपना
कर्मशील मानव हो, प्रभु ! और प्रेम का स्रोत
हो प्रकाशित बिखर जग में परम जीवन ज्योत !

सुख पाकर मैं न इतराऊँ
दुःख को दुःख न जानूँ,
दो इतनी समता, दृढ़ता तुम
कुछ भी क्षुद्र न मानूँ !

Friday, November 19, 2010

तुम मुक्त स्वयं, मुक्तिदाता !
तुम बांध नहीं रखते मुझको,
जग प्रेम की कीमत है बंधन
बिन कीमत चाहा है तुमको !

मन छलता है खुद को प्रतिपल
कहता प्रियतम को आराधें,
फिर खो जाता निज सुधियों में
फिर जग का आकर्षण बांधे !

मिट जाये मन, मृत हो आशा
झर जाये पुष्प सी अभिलाषा,
बस भान रहे इतना भीतर
तुम हो स्वामी, मैं हूँ दासा !

Thursday, November 18, 2010

मैं तुमसे मिलने को आतुर
पर क्योंकर तुमसे मिल पाता
जब निकलूं घर से मिलने को
सँग मेरे अहं चला आता !

मैं स्वयं तुमसे चाहूँ मिलना
पर यह न कभी संभव होता
मन, बुद्धि, चित्त, अहं का गढ़
टूटा न कभी तोड़ा जाता !

हम स्वयं बंधते हैं बंधन में
फिर कहते प्रभु! खोलो,खोलो
नित अहं को पोषा करते हैं
फिर भजते हरि! बोलो,बोलो

Wednesday, November 17, 2010

न तुमसा कोई न बढ़कर
तुम सहज प्रेम दे बुला रहे,
जग एक छलावा, फीका है
फिर भी आकर्षण लुभा रहे !

मन के ऊपर जो परतें हैं
हैं तुच्छ, घृणित, हैं दुखदायक
तुम ढके हुए भीतर कोमल
निर्दोष प्रेम ! हो सुखदायक !

जग में पाना निज को खोना
जग खोकर ही निजता पाते
जिसको जीवन हम समझ रहे
मरकर ही उस द्वारे जाते !

अनिता निहालानी
१७ नवम्बर २०१०