Tuesday, May 26, 2015

श्रीराम का वैष्णव-धनुष को चढ़ाकर अमोघ बाण के द्वारा परशुराम के तप प्राप्त पुण्यलोकों का नाश करना तथा परशुराम का महेंद्र पर्वत को लौट जाना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षट्सप्ततितमः सर्गः

श्रीराम का वैष्णव-धनुष को चढ़ाकर अमोघ बाण के द्वारा परशुराम के तप प्राप्त पुण्यलोकों का नाश करना तथा परशुराम का महेंद्र पर्वत को लौट जाना

दशरथ नंदन श्रीराम को, पिता के गौरव का था ध्यान
चुप थे वह संकोच के वश ही, किन्तु न रह पाए अब शांत

कहा उन्होंने परशुराम से, सुना है मैंने भी वह कृत्य
पिता के ऋण से उऋण हुए, मारे गये थे जब क्षत्रिय

मैं भी हूँ क्षत्रिय धर्मी, नहीं पराक्रम हीन, असमर्थ
देखें मेरा भी तेज अब, लिया हाथ से शीघ्र धनुष
चढ़ा धनुष तब प्रत्यंचा पर, कुपित हुए ये शब्द कहे
नहीं छोड़ सकता आप पर, प्राण संहारक बाण ये

 ब्राह्मण होने के नाते से, पूज्यनीय हैं आप मेरे
एक दूसरा कारण भी है, नाता है विश्वामित्र से

राम ! यह मेरा विचार है, शक्ति गमन की जो आपकी
अथवा अनुपम पुण्यलोक सम, हर लूँ मैं तप की शक्ति

निष्फल कभी नहीं जा सकता, यह दिव्य वैष्णव बाण  
गर्व दमित कर दे शत्रु का, विजय सदा कराए प्राप्त

धनुष बाण धारी राम के, दर्शन हेतु आये देवता
ब्रह्मा जी को आगे करके, एकत्र हुए ऋषि वहाँ

चारण, सिद्ध, यक्ष, राक्षस, किन्नर, नाग, गन्धर्व भी
वह अद्भुत दृश्य देखने, आ पहुंची थीं अप्सराएँ भी

श्रेष्ठ धनुष जब लिया हाथ, जड़वत् हुए सभी अचरज से
दशरथ नंदन राम को देखा, वीर्य हीन हो परशुराम ने

धीरे-धीरे कहा राम से, पूर्वकाल में कश्यप जी को
पृथ्वी दान में जब दी थी, कहे वचन थे ये मुझको

रहना नहीं चाहिए अब से, इस राज्य में अब आपको
तब से मैं ऐसा करता हूँ, रहता नहीं हूँ यहाँ रात को

गमन शक्ति को नष्ट न करें, इसीलिए हे राघव वीर,
जाऊंगा महेंद्र पर्वत पर, मन समान वेग से शीघ्र

जीता जिन अनुपम लोकों को, मैंने निज तप के बल से
शीघ्र नष्ट कर दें उनको ही, आप इस श्रेष्ठ बाण से

धनुष चढ़ा दिया आपने, इससे निश्चित है यह बात
मधु दैत्य के हन्ता ही हैं, अविनाशी विष्णु भगवान

देख रहे हैं सभी देवता, अनुपम हैं कर्म आपके
कोई नहीं अप सम दूजा, युद्ध में सामना करने

प्रकट हुई मेरी अयोग्यता, है यह लज्जा जनक नहीं
हुआ पराजित हूँ आपसे, नाथ त्रिलोकी के श्री हरि

उत्तम व्रती हे श्रीराम अब, देर करें न छोड़ें बाण
तत्पश्चात प्रस्थान करूंगा, सदा आपका हो कल्याण

छोड़ा बाण जब सुनी बात यह, परशुराम तैयार हुए
दूर हुआ सब अन्धकार तब, देव ऋषि सब हर्षित थे

भूरि-भूरि तब की प्रशंसा, श्रीराम की सबने मिलकर
पूजित हो राम से गये, परशुराम परिक्रमा भी कर


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Thursday, May 21, 2015

राजा दशरथ की बात अनसुनी करके परशुराम का श्रीराम को वैष्णव-धनुष पर बाण चढ़ने के लिए ललकारना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

पञ्चसप्ततितमः सर्गः
राजा दशरथ की बात अनसुनी करके परशुराम का श्रीराम को वैष्णव-धनुष पर बाण चढ़ने के लिए ललकारना

दशरथ नंदन ! राम ! सुना है, अद्भुत है पराक्रम तुम्हारा
पड़ा है मेरे श्रवणों में भी, समाचार शिव धनुष भंग का

है अचिन्त्य, अनोखा भी है, तोड़ा जाना तुमसे उसका
उतम धनुष अति भयंकर, लाया हूँ मैं एक दूसरा  

इसे खींच कर बाण चढ़ाओ, अपना पराक्रम दिखलाओ
द्वंद्व युद्ध फिर योग्य तुम्हारे, इसे देख मैं दूंगा तुमको

वचन सुना जब परशुराम का, राजा दशरथ दुखी हो गये
 अभय दान राम को दे दें,  दीन भाव से उनसे बोले  

भृगुवंशी ब्राह्मण के कुल में, जन्मे आप तपस्वी, ज्ञानी
रोष क्षत्रियों पर प्रकटा था, शांत हुआ, प्रतिज्ञा भी की

कहा इंद्र से स्वयं आपने, त्याग कर दिया है शस्त्रों का
कश्यप जी को भूमि दान कर, व्रत लिया आपने धर्म का

है महेंद्र पर्वत पर आश्रम, आप यहाँ कैसे आये हैं
 है राम पर रोष आपका, हम सब इससे अकुलाये हैं

राजा दशरथ कहते रह गये, परशुराम ने बात न सुनी
उनकी अवहेलना करके, राम से ही यह बात कही

रघुनन्दन ! ये दो धनुष ही, श्रेष्ठ और दिव्य थे जग में
विश्वकर्मा ने इन्हें बनाया, प्रबल और बड़े ही दृढ़ थे

त्रिपुरासुर से युद्ध के लिए, देवों ने शिव को दिया था
जिससे त्रिपुर का नाश हुआ, वही तोड़ तुमने डाला

दूजा धनुष हाथ में मेरे, दिया था विष्णु को देवों ने
यही वह वैष्णव धनुष है, शत्रु नगर पर विजय पा सके

शिव, विष्णु के बलाबल की, ली परीक्षा जब देवों ने
कौन अधिक बलशाली है, पूछा था यह ब्रहमाजी से

जान देवताओं की इच्छा, दोनों में विरोध जगाया
युद्ध हुआ तब शिव-विष्णु में, बड़ा भयंकरकारी था

विष्णु ने हुन्कार मात्र से, शिव धनुष को शिथिल किया
तब देवों ने आकर उनसे, शांति का अनुरोध किया

शिव के धनुष को शिथिल देख, विष्णु को श्रेष्ठ माना
कुपित हुए रूद्र ने उसको, देवरात को सौंप दिया

विष्णु ने भृगु वंशी मुनि को, दिया धरोहर रूप धनुष
फिर ऋचीक ने जमदग्नि को, सौंप दिया यह दिव्य धनुष

अस्त्र-शस्त्र का त्याग किया, पिता जमदग्नि तप करते थे
हत कर डाला था उनको, उसी समय कृतवीर्य कुमार ने

पिता के इस वध को सुनकर, मैंने फिर प्रतिशोध लिया
बार-बार उत्पन्न हुए जो, क्षत्रियों का संहार किया

पृथ्वी पर अधिकार किया जब, यज्ञ किया, दी भूमि दान
तप करके बली हुआ फिर, सुन धनु भंग किया प्रस्थान

अब तुम इसको हाथ में लो, बाण चढाओ ऐसा इस पर
द्वंद्व युद्ध का अवसर दूंगा, यदि ऐसा कर पाए तुम


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पचहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, May 20, 2015

राजा जनक का कन्याओं को भारी दहेज देकर राजा दशरथ आदि को विदा करना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


विश्वामित्र का अपने आश्रम को प्रस्थान, राजा जनक का कन्याओं को भारी दहेज देकर राजा दशरथ आदि को विदा करना, मार्ग में शुभाशुभ शकुन और परशुरामजी का आगमन

बीती रात जब हुआ सवेरा, विश्वामित्र जो महामुनि थे
दोनों नृपों से ले आज्ञा, उत्तर पर्वत चले गये

दशरथ ने भी अनुमति ली तब, विदेहराज मिथिलानरेश से
शीघ्र हुए तैयार सभी वे, पुरी अयोध्या जाने को थे

राजा जनक ने कन्याओं हित, दिया दहेज, प्रचुरता से धन
 लाखों गौएँ, कई कालीनें, रेशमी और सूती भी वस्त्र

सजे हुए थे गहनों से जो,  घोड़े, रथ, पैदल व हाथी
उत्तम दास-दासियाँ भी दीं, सखियाँ भी पुत्रियों की

स्वर्ण, रजत मुद्राएँ भी दीं, मोती, मूँगे के उपहार
बड़े हर्ष के साथ दिए, वस्तुएं थीं नाना प्रकार

दशरथ की आज्ञा लेकर तब, जनक मिथिला लौट गये
महर्षियों को आगे करके, दशरथ भी प्रस्थित हुए

ऋषि समूह व राम चन्द्र संग, राजा दशरथ जब जाते थे
शब्द भयंकर लगे थे करने, चारों ओर कई पंछी उनके

भूमि पर विचरण करते मृग, दायीं ओर उन्हें कर जाते 
देख उन्हें पूछा दशरथ ने, कारण इसका महामुनि से

अशुभ और शुभ दो प्रकार का, शकुन मुझे कम्पित करता
क्या होगा इसका फल बोलें, मन दुःख में डूबा जाता

राजा का यह वचन सुना तो, मधुर वचन कहे वसिष्ठ ने
पक्षी का स्वर भय दिखलाये, शांत वह होगा, मृग कहते

चिंता मुक्त हो रहें आप यह, अभी कहा था मुनि वसिष्ठ ने
तभी अचानक उठी भयानक, जोरों की आंधी मग में
सारी पृथ्वी को कंपाती, बड़े बड़े वृक्षों को गिराती
सूर्य छिपा अंधकार में, खो सी गयीं दिशाएं भी

ढकी धूल से सारी सेना, मूर्छित सी नजर आती थी
मुनि वसिष्ठ, ऋषि गण व राजा, चेत रहा पुत्रों को ही

उस घन घोर अंधकार में, राजा दशरथ ने यह देखा 
मान मर्दन किया था जिसने, सभी क्षत्रिय राजाओं का

भृगुकुल नन्दन जमदग्निकुमार, परशुराम चले आते थे
बड़ी जटाएं थीं मस्तक पर, अति भयानक वे लगते थे

दुर्जय थे कैलाश समान, कालाग्नि सम थे दुःसह
तेजोमंडल से प्रज्ज्वलित, न देखा जाता उनका मुँह

त्रिपुर विनाशक शिव समान थे, ब्रह्मर्षि आपस में कहते
क्या पुनः संहार करेंगे, पिता के वध से क्रोधित हो ये

पूर्वकाल में ऐसा करके, क्रोध शांत किया इन्होने
ऐसा तो निश्चित ही है, अब यह बदला नहीं ही लेंगे

कहकर ऐसा दिया अर्घ्य, राम ! राम ! कह कर स्वागत
पूजा को स्वीकार किया व, कहा राम से इस प्रकार तब


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Tuesday, May 19, 2015

श्रीराम आदि चारों भाइयों का विवाह

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

त्रिसप्ततितमः सर्गः

श्रीराम आदि चारों भाइयों का विवाह

राजा दशरथ ने जिस दिन, किया श्रेष्ठ गोदान विवाह हित
आ पहुंचे थे वहाँ उसी दिन, भरत के मामा वीर युधाजित

दर्शन कर राजा दशरथ के, पूछ कुशल कहे वचन ये  
बड़े स्नेह से मंगल पूछा, है केकयदेश राजा ने

सभी वहाँ सानंद स्वस्थ हैं, कुशल जानना चाहें जिनका  
भरत से मिलना वे चाहते, उन्हें लिवाने मुझको भेजा

किन्तु अयोध्या में यह सुनकर, मिथिलापुरी आप आये हैं
 भांजे से मिलने की लालसा, यहीं मुझे खीँच लायी है

राजा ने किया सत्कार, थे प्रिय अतिथि आदरणीय भी  
बीती रात्रि, प्रातः होते ही, यज्ञशाला पहुँचे जनक की

विवाह योग्य मुहूर्त आया, ‘विजय’ नाम जब, सभी पधारे
दूल्हे के अनुरूप सजे तब, भाईयों संग राम भी आये  

मंगलाचरण पूर्ण कर चुके, वसिष्ठ मुनि व अन्य महर्षि
राजा जनक से कहे वचन ये, आज्ञा दें भीतर आने की

दाता और प्रतिग्रहीता का, दोनों का संयोग हुआ जब
दान धर्म तभी सम्भव है, आप उन्हें बुलवाएँ अब

परम उदार महातेजस्वी, राजा जनक ने कहे वचन ये
कोई पहरेदार नहीं है, प्रतीक्षा है आदेश की किसके   

अपने घर में आने हेतु, कैसा करते सोच-विचार
यह राज्य जैसे मेरा, अपना जान करें व्यवहार

मंगलकृत्य पूर्ण हो चुके, वैवाहिक सूत्र बंधन के
यज्ञ वेदी के निकट आ चुकीं, अग्नि-शिखाओं सम कन्याएं   

आपकी ही प्रतीक्षा हेतु, बैठा हूँ मैं भी वेदी पर
निर्विघ्न कार्य करें अब, है विलम्ब किस बात का अब

बात सुनी जब मुख वसिष्ठ से, राजा जनक की कही बात ये
 पुत्रों और महर्षियों संग तब, राजा दशरथ भीतर आये

विदेहराज ने कहा वसिष्ठ से, करें विवाह की क्रिया पूर्ण
विश्वामित्र व शतानंद संग, वेदी बनी तब विधिपूर्वक

गंध और फूलों के द्वारा, चारों ओर से खूब सजायी
सुवर्ण-पालिकाएं मंगवायी, यव अंकुर से युक्त कलश भी

अंकुर जमे सकोरे भी थे, धूप युक्त धूम पात्र भी
शंख पात्र, स्रुवा, स्रुक, अर्घ्य, लावा से भरे पात्र भी

अक्षत आदि सभी सामग्री, कुश भी चारों ओर बिछाया
किया विधि से अग्नि स्थापन, मन्त्र पाठ कर हवन किया

तब नृप ने अलंकृत पुत्री को, बिठाया राम चन्द्र के पास
कहा राम से ‘हो कल्याण’, सीता को स्वीकार करो अब

सदा तुम्हारे साथ रहेगी, जैसे छाया यह पतिव्रता
ऐसा कह राम के हाथ में, संकल्प का जल छोड़ा

देवताओं, ऋषियों के मुख से, साधुवाद तब पड़े सुनाई
बजे नगाड़े, तब देवों के, फूलों की वर्षा भी हुई

 मन्त्र व संकल्पित जल से, पुत्री के दान से हर्षित
कहा लक्ष्मण से राजा ने, दूँ उर्मिला को तुम हित

स्वीकारो, लो हाथ हाथ में, नहीं विलम्ब करो इसमें
कहा भरत से तब राजा ने, मांडवी का लो हाथ हाथ में

शत्रुघ्न से कहा विदेह ने, पाणिग्रहण करो श्रुतकीर्ति का
चारों भाई हो शांत स्वभाव, पालन करते श्रेष्ठ व्रतों का

चारों हो संयुक्त पत्नी से, इसमें न विलम्ब करो अब
वचन सुने जब ये राजा के, हाथ हाथ में लिए थे तब

की परिक्रमा निज पत्नी संग, अग्नि-वेदी, पिता, ऋषियों की
विधिपूर्वक किया पूर्ण तब, वैवाहिक क्रिया सम्पन्न की

हुई सुहानी वर्षा पुष्पों की, दिव्य ध्वनि भी शब्द मनोहर
नृत्य किया अप्सराओं ने, गन्धर्वों ने गायन भी मधुर

अद्भुत दृश्य दिखा विवाह में, अग्नि परिक्रमा तीन बार की
जनवासे में तब गये वे, सबके संग पीछे राजा भी


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Friday, May 15, 2015

विश्वामित्र द्वारा भरत और शत्रुघ्न के लिए कुशध्वज की कन्याओं का वरण

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


द्विसप्ततितमः सर्गः

विश्वामित्र द्वारा भरत और शत्रुघ्न के लिए कुशध्वज की कन्याओं का वरण, राजा जनक द्वारा इसकी स्वीकृति तथा राजा दशरथ का अपने पुत्रों के मंगल के लिये नान्दीश्राद्ध एवं गोदान करना

कह चुके मिथिला नरेश जब, विश्वामित्र बोले वसिष्ठ संग
दोनों ही की नहीं है सीमा, अतुल इक्ष्वाकु, विदेह के वंश

धर्म संबंध इन दो कुलों में, जुड़ने वाला अतियोग्य है
रूप हो या वैभव दोनों में, दोनों ही अति समान हैं

धर्मज्ञ नृप कुशध्वज की भी, अति सुन्दरी हैं कन्याएँ
भरत और शत्रुघ्न के हेतु, वरण करूं उन दोनों का मैं

दशरथ के ये सभी पुत्र ही, शोभित रूप और यौवन से
देवताओं के तुल्य वीर हैं, तेजस्वी सम लोकपालों के

कन्यादान इन्हें भी करके, समस्त कुल बंधन में बांधें
पुण्यकर्मा पुरुष आप हैं, चित्त में नहीं व्यग्रता लायें

सम्मति थी वसिष्ठ की जिसमें, वचन सुना जब विश्वामित्र का
हाथ जोड़ कर कहा जनक ने, इस कुल को मैं धन्य मानता

हो कल्याण आपका मुनिवर, हो ऐसा ही, जो आप कहें
कुशध्वज की ये दो कन्याएं, भरत, शत्रुघ्न ग्रहण करें

चारों महाबली कुमार ये, करें साथ सब पाणिग्रहण
फाल्गुनी नक्षत्र से युक्त, अति शुभ हैं अगले दो दिन

पूर्वा फाल्गुनी कल ही, परसों है उत्तरा फाल्गुनी
जिसके देव प्रजापति भग हैं, अति उत्तम कहते मनीषी

उठकर खड़े हुए तब राजा, हाथ जोड़ मुनिवरों से बोले
शिष्य हूँ मैं आप दोनों का, श्रेष्ठ आसन ग्रहण करें

अयोध्या के समान ही मेरी, मिथिलानगरी अपनी जानें
है अधिकार आपका पूरा, यथायोग्य आज्ञा हमें दें

राजा जनक के यह कहने पर, दशरथ ने कहा हो प्रमुदित
दोनों भाई अति गुणी हैं, ऋषि, राजा सब हुए सम्मानित

हो कल्याण आपका राजा, मंगल के भागी हों आप
अब हम जायेंगे निवास पर, सम्पन्न करेंगे नांदी श्राद्ध

ले अनुमति मिथिला नरेश की, मुनियों सहित गये राजा
विधिपूर्वक श्राद्ध किया तब, प्रातः काल गोदान किया

प्रति पुत्र के मंगल के हित, एक लाख गौएँ दान दीं
सींग मढ़े जिनके सोने से, संग बछड़े, कांस्यपात्र भी

दान कर्म सम्पन्न कर दशरथ, घिरे हुए पुत्रों से बैठे
जैसे शांत प्रजापति ब्रह्मा, घिरे हुए हों लोकपालों से


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.