Friday, February 26, 2016

श्रीराम का वनवास के कष्ट का वर्णन करते हुए सीता को वह चलने से मना करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

अष्टाविंशः सर्गः

श्रीराम का वनवास के कष्ट का वर्णन करते हुए सीता को वह चलने से मना करना

सीता के वचनों को सुनकर, जो धर्म की थीं ज्ञाता
धर्म वत्सल श्रीराम ने, नहीं विचारा संग ले जाना

उनके नयनों में अश्रु थे, श्रीराम ने दी सांत्वना
सोच दुखों को वनवास के, निवृत्त इससे करना चाहा  

उत्तम कुल में जन्मी हो, धर्म युक्त आचरण तुम्हारा
यहीं करो धर्म का पालन, सीते ! मुझे संतोष मिलेगा

तुमसे जैसा कहूँ मैं, करो, कर्त्तव्य है यही तुम्हारा
तुम हो अबला, सुनो यह मुझसे, वन में दोष कई बताता

गमन का विचार त्याग दो, दुर्गम वन दोषों से व्याप्त
हित-भावना से ही कहता, सुख न वहाँ दुःख होते प्राप्त

पर्वत से जब झरने गिरते, सुन वह शब्द सिंह गर्जते
दुखःमय है गर्जना उनकी, पीड़ा अन्य पशु भी देते  

नदियों में ग्राह रहते हैं, उन्ह पार करना है दुर्गम
मतवाले हाथी भी विचरते, मार्ग में भरे हैं कंटक

जंगली मुर्गे बोला करते, जल भी निकट नहीं मिलता
दिन भर श्रम से हो क्लांत, पत्तों का बिछौना मिलता

मन वश में रखकर वन में, भोजन स्वतः प्राप्त फलों का
वल्कल वस्त्र, जटाएं सिर पर, उपवास शक्ति भर करना

देवों, पितरों, अतिथियों का, शास्त्रविधि से पूजन करना
वन वासी का प्रधान कर्त्तव्य, तीनों समय स्नान भी करना

स्वयं चुनकर लाये फूलों से, देवों की पूजा करनी है
जो आहार मिले जैसा भी, उससे ही तृप्ति करनी है

कष्ट भूख का, भय अनेकों, आँधी, अंधकार भी वन में
सर्प विचरते मध्य मार्ग में, पहाड़ी भी और नदियों के

बिच्छू, कीड़े, मच्छर, डांस, और पतंगे कष्ट पहुंचाते
कांटेदार वृक्ष, कुश, कांस, वन में वृक्ष अनेकों मिलते

शारीरिक क्लेश भी मिलते, नाना भय सताते मन में
क्रोध, लोभ त्याग करना है, मन लगाना है तप में

भय के अवसर पाकर भी, भयभीत न होना वन में
उचित नहीं तुम्हारा जाना, रह सकती नहीं कुशल से

जब राम ने मना कर दिया, सीता ने न मानी बात
हो अत्यंत दुखी वह बोलीं, बहती थी अश्रु की धार


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अट्ठाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ.




Tuesday, February 9, 2016

सीता की श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिए प्रार्थना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

सप्तविंशः सर्गः

सीता की श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिए प्रार्थना

श्रीराम के यह कहने पर, प्रियवादिनी, जनक नंदिनी 
प्रेम पति का पाने योग्य, प्रेम वश ही कुपित हो गयीं

ओछी समझ मुझे हे राम ! वचन आप कहते हैं ऐसे
हँसी आ रही जिनको सुनकर, भला आप कह सकते कैसे

नहीं योग्य वे वीरों के है, न ही सुनने के काबिल
अपयश का टीका ये लगाता, न हो कुछ इससे हासिल

निज भाग्य को ही भोगते, माता-पिता पुत्र या भाई
पति के भाग्य का अनुसरण, केवल पत्नी ही करती

मिली आज्ञा अतः मुझे भी, संग आपके वन जाने की
नारी के हित हर लोक में, आश्रय दाता है पति ही

पिता, पुत्र, माता सखियाँ, तन भी उसका नहीं सहायक
दुर्गम वन को यदि जा रहे, यदि आज आप रघुनन्दन

कुश, काँटों को मैं मार्ग के, कुचलती हुई चलूंगी आगे
हटा ईर्ष्या और रोष को, हो निशंक मुझे साथ ले चलें

पीने से बचे जल की भांति, साथ ले चलें मुझको आप
क्या अपराध किया है मैंने, जिस हेतु करें मेरा त्याग

ऊँचे महलों में रहना हो, या विमानों में घूमना
अणिमा आदि सिद्धि पाकर, ऊँचे अम्बर में विचरना

किसी अवस्था में नारी को, इनकी कोई नहीं अपेक्षा
उसे अपेक्षित है केवल, पति के चरणों की ही छाया

किससे कैसा करूं बर्ताव, शिक्षा दी है माता-पिता ने  
नाना हिंसक जीव से भरे, जाना मुझको निर्जन वन में

जैसे पिता के घर में थी मैं, वैसे ही वहाँ सुख से रहूंगी
तुच्छ मान कर सुख त्रिलोक का, धर्म पतिव्रत का पालूंगी

सेवा सदा आपकी करती, नियमपूर्वक वहाँ रहूंगी
मधुर गंध से सिक्त वनों में, संग आपके ही विचरुँगी

आप मान देते दूजों को, सक्षम रक्षा करने में भी
संशय नहीं है मन में मेरे, बड़ी बात नहीं रक्षा मेरी

कष्ट नहीं आपको दूंगी, सदा आपके साथ रहूंगी
प्रतिदिन फल-मूल खाकर, सुख से मैं निर्वाह करूंगी

आपके आगे-आगे रहकर, शेष बचा भोजन पाऊंगी
मेरे मन की इच्छा है यह, निर्भय हो वन में घूमूंगी

आप वीर स्वामी हैं मेरे, सरवर, पर्वत मुझे देखने
हंस और कारण्डव पक्षी, कमल सुशोभित हैं जिनमें

हे विशाल नयनों वाले !, चरणों में अनुरक्त रहूंगी
आनन्द का अनुभव होगा, प्रतिदिन जब वहाँ विचरुँगी

शत, सहस्त्र वर्षों तक भी, यदि आपका संग मिले
कष्ट नहीं होगा मुझको, स्वर्ग न चाहूँ बिना आपके

मेरे उर का सारा प्रेम, एकमात्र आपको अर्पित
नहीं कहीं मन जाता मेरा, है वियोग में मृत्यु निश्चित

साथ ले चलें यही ठीक है, मेरा कोई भार न होगा
सीता के ऐसा कहने पर भी, मन राम का यह न माना

वनवास के कष्टों का फिर, वे विस्तार से वर्णन करते
निवृत्त करने हित सीता को, वन गमन के उस विचार से


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Monday, February 1, 2016

श्रीराम का पिता की आज्ञा से वन में जाने का निश्चय बताते हुए सीता को घर में रहने के लिए समझाना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


श्रीराम को उदास देखकर सीता का उनसे कारण पूछना और श्रीराम का पिता की आज्ञा से वन में जाने का निश्चय बताते हुए सीता को घर में रहने के लिए समझाना 

निर्जन वन में जाने हेतु, कर चुका हूँ मैं प्रस्थान
तुमसे मिलने आया हूँ अब, सुनो वचन मेरे दे ध्यान  

कभी प्रशंसा न करना, सम्मुख भरत के तुम मेरी
क्योंकि नहीं सहन कर पाते, स्तुति पुरुष दूसरे की

बार-बार मेरी चर्चा भी, उनके सम्मुख न करना
मनोनुकूल बर्ताव करके, पा सकती आदर उनका

राजा ने युवराज बनाया, सदा उन्हें प्रसन्न रखना
वे ही अब राजा होंगे, धैर्य तुम धारण करना

कल्याणी ! सीते निष्पाप ! मेरे वन जाने के बाद
व्रत, उपवास में रत रहकर, देवों का करना सम्मान

राजा की भी कर वन्दना, कौसल्या माँ का पूजन
वृद्धा हैं दुःख से दुर्बल भी, करना तुम उनका वन्दन

जो मेरी शेष मातायें, उनके चरणों को प्रणाम
स्नेह, प्रेम, पालन-पोषण से, सब हैं मेरे लिए समान

भरत, शत्रुघ्न प्रिय प्राणों से, उन्हें भाई व पुत्र मानना
भरत विरुद्ध कुछ भी न करना, मेरे कुल के वे हैं राजा

अनुकूल आचरण द्वारा, राजा अति प्रसन्न होते
विपरीत हो बर्ताव यदि, कुपित तभी होते हैं वे

जो अहित करने वाले हों, पुत्र हों तब भी त्यागे जाते
आत्मीय न होने पर भी, समर्थ को अपना बनाते

इसीलिए तुम हे कल्याणी ! भरत के अनुकूल ही रहो
धर्म और सत्यव्रत में रत, रहकर यहाँ निवास करो

उस विशाल वन में जाता मैं, तुम्हें यहीं वास करना  
कष्ट किसी को न हो तुमसे, इसी तरह यहाँ रहना


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.