Sunday, October 28, 2012

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्- पुत्रेष्टि यज्ञ का आरम्भ


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


त्रयोदशः सर्गः

तब बोले वे सब वशिष्ठ से, होगा पूर्ण अभीष्ट आपका
त्रुटि नहीं कोई भी होगी, कार्य नहीं बिगड़ पायेगा

मुनि ने तब सुमन्त्र से कहा, धरती पर जो हैं धार्मिक
राजा, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, और शूद्र भी हों आमंत्रित

सब देशों के श्रेष्ठ जनों को, आदर से यहाँ बुलवाओ
मिथिला राजा हैं सम्बन्धी, स्वयं ही जाकर उन्हें बुलाओ

प्रियभाषी कशी नरेश भी, देवतुल्य सदाचारी हैं
केकय देश के बूढ़े राजा, महाराज के श्वसुर हैं

अंगदेश के रोमपाद भी, महाराज के परम मित्र हैं
पुत्र सहित इनको स्वयं ही, लेकर आओ यह उचित है

कोशल राज भानुमान को, मगध देश के प्राप्तिज्ञ को
शूरवीर जो परम उदार, स्वयं जाकर ले आओ उनको

महाराज की आज्ञा लेकर, पूर्वदेश के श्रेष्ठ जनों को
सिंधु-सौवीर एवं सुराष्ट्र के, दो निमंत्रण भूपालों को

दक्षिण भारत के जो राजा, भूतल पर जो अन्य स्नेही
सह परिवार करो आमंत्रित, बड़भागी दूतों द्वारा ही

सुन वचन यह मुनि वशिष्ठ का, दूतों को तुरंत भिजवाया
खास-खास राजाओं को स्वयं, आदर सहित था बुलवाया

यज्ञ कर्म की व्यवस्था भी, जिनके द्वारा की जानी थी
जितना कार्य पूर्ण हुआ था, सभी सूचना उसकी भी दी  

सुनकर बड़े प्रसन्न हुए वे, और सीख यह दी उनको
जो कुछ भी देना हो किसी को, सदा बड़े ही आदर से दो

 अवहेलना कर दिया दान तो, लाभ नहीं होता कुछ उसमें  
दाता को ही नष्ट कर देता, नहीं है कोई संशय इसमें

तत्पश्चात कुछ दिनों बाद ही, राजा लोग भेंट ले आये
यथायोग्य स्वागत कर उनका, राजा को ये वचन सुनाये

सावधान रह कार्य किया है, पूर्ण हुई है सब तैयारी
यज्ञ मंडप के पास चलें अब, स्वयं चलकर देखें यह सारी

मंडप इतना शीघ्र बना है, मानों मन के संकल्प से
शुभ नक्षत्र देख कर राजा, यज्ञ हेतु थे तब निकले

वशिष्ठ आदि सभी द्विजों ने, ऋष्यश्रंगको आगे करके
शास्त्र विधि से किया आरम्भ, ली यज्ञ की दीक्षा नृप ने

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तेरहवां सर्ग पूरा हुआ.



Thursday, October 18, 2012

समागत राजाओं का सत्कार तथा पत्नियों सहित राजा दशरथ का यज्ञ की दीक्षा लेना


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


त्रयोदशः सर्गः

राजा का वसिष्ठ से यज्ञ की तैयारी के लिए अनुरोध, वसिष्ठ जी द्वारा इसके लिए सेवकों की नियुक्ति और सुमन्त्र को राजाओं की बुलाहट ले लिए आदेश, समागत राजाओं का सत्कार तथा पत्नियों सहित राजा दशरथ का यज्ञ की दीक्षा लेना

वर्तमान वसंत बीता जब, पुनः वसंत के दिन आए
अश्वमेध की दीक्षा लेने, राजा मुनि के निकट ध्याए

पूजन, नमन किया वसिष्ठ का, विनययुक्त यह बात कही
शास्त्र विधि से यज्ञ कराएँ, विघ्ननिवारण करें, हे मुनि !

स्नेह आपका मुझे मिला है, हे सुह्रद, गुरु, परम महान
वहन आप ही कर सकते है, यज्ञ भार जो पड़ा है आन

कहा मुनि ने ‘हाँ’ राजा को, पूर्ण प्रार्थना होगी उसकी
अति निपुण शिल्पीजन संग, कई बुलाए पंडित, ज्योतिषी

सेवक, बढई, कारीगर भी, बहुश्रुत, शास्त्र वेत्ता भी आयें
यज्ञ कर्म का हो प्रबंध, हर एक को कार्य बताए

कई हजार ईंटें मंगवायें, राजाओं हित महल बनायें
अन्न-पान, भोजन से युक्त, ब्राह्मण हित भी घर बनवायें

पुरवासी भी ठहरें जिसमें, भूपालों हित आश्रय हों
अश्व और गजों के हित, समुचित सुंदर शालाएं हों

छावनियाँ सैनिकों हित हों, जो विदेश से आए हों
   भोजन की हो प्रचुर व्यवस्था, साधारण जन भी पायें

विधिपूर्वक ससम्मान, नगरवासी भी भोजन पायें
नहीं किसी का हो अनादर, शिल्पी भी आदर पायें

जो सेवक, कारीगर धन से, सम्मानित होते हैं सादर
वे मेहनत से कर्म करेंगे, काम भी होगा उनसे सुंदर 

Thursday, October 4, 2012

सरयू तट पर यज्ञ भूमि का निर्माण



श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


द्वादशः सर्गः

राजा का ऋषियों से यज्ञ करने के लिए प्रस्ताव, ऋषियों का राजा को और राजा का मंत्रियों को यज्ञ की तैयारी करने के लिए आदेश देना

तत्पश्चात समय कुछ बीता, दोष रहित काल आया
ऋतु वसंत का हुआ आगमन, नृप को यज्ञ विचार आया

विप्रवर ऋष्यश्रंग को, झुका के मस्तक नमन किया
पुत्र प्राप्ति हित यज्ञ कराने, उनका सादर वरण किया

हामी भर दी ऋष्यश्रंग ने, ‘सामग्री मंगवाओ’ कहकर
यज्ञ भूमि का हो निर्माण, सरयू के उत्तर तट पर

यज्ञ सम्बन्धी अश्व भी छोड़ें, कहा ऋषि ने तब राजा से
वेदज्ञ ब्राहमणों को बुलाया, पूजन करने, कह सुमन्त्र से

कहा नरेश ने उनसे तब, पुत्र बिना सुख नहीं राज्य में
होंगी पूर्ण कामनायें सब, है विश्वास यज्ञ यह करके

‘साधू, साधू’ कह की सराहना, वशिष्ठ सहित, ब्राह्मणों ने  
अमित पराक्रमी चार पुत्र तुम, करो प्राप्त धार्मिक कृत्य से

राजा हर्षित हुए अति फिर, शुभ वार्ता कह मंत्रियों से
ऋत्विज सहित अश्व छोड़ो, वीरों के संरक्षण में  

यज्ञ भूमि का हो निर्माण, सरयू के उत्तर तट पर
शांतिकर्म, पुण्याहवाचन का, अनुष्ठान हो विघ्न हरण हित

कष्टप्रद अपराध न बने, तभी यज्ञ सम्पादित होता
वह यजमान नष्ट हो जाता, विधि हीन यज्ञ जो करता

विधिपूर्वक सम्पन्न हो यह, वही उपाय किये जाएँ
त्रुटि का भय नहीं रहे फिर, कोई विघ्न डाल न पाये  

किया समर्थन सभी ने मिलकर, राजराजेश्वर दशरथ का
आज्ञा पाकर गए सभी वे, वैसी ही फिर की व्यवस्था

 इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बारहवां सर्ग पूरा हुआ.