Wednesday, December 28, 2011

आत्म दृष्टि(शेष भाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

आत्म दृष्टि

ज्यों फेन, तरंग, बुलबुले, आदि स्वरूप से जल ही हैं
देह से अहंकार तक जग यह, एक शुद्ध आत्मा ही है

ज्यों घट, कलश, कुम्भ सब मिट्टी, सत् से ही है सारी सत्ता
माया से भेद दिखता है, आत्मनिष्ठ को सत् ही दिखता

ज्ञानी एक ही देख रहा है, अद्वैत में उसकी निष्ठा
भ्रम से द्वैत जगत में है, ‘मैं’ ‘तू’ का यह झगड़ा दिखता

परब्रह्म है आकाश सा निर्मल, निर्विकल्प, निस्सीम, अटल
निर्विकार, शून्य, अनन्य, परे ज्ञान से है निश्चल

है अद्वितीय, विस्तृत सब ओर, जीव रूप से वही हुआ है
ब्रह्म भाव आनंद रूप में, त्याग विषय वह ब्रह्म हुआ है

नहीं देह, न मन बुद्धि हो, ब्रह्म स्वरूप में निश्चय दृढ़ हो
शुद्ध आत्म स्वरूप को पाकर, सब दुखों से मुक्त रहो

Sunday, December 25, 2011

आत्म दृष्टि


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

आत्म दृष्टि

साक्षी सबका, ज्ञान स्वरूप जो, मन उस आत्मा में स्थिर हो
धीरे-धीरे निश्चित होकर, सब ओर स्वयं को ही देखो

देह, मन, आदि है उपाधि, जो अज्ञान से ही उपजी है
इनसे रहित अखंड आत्मा, महाकाश सी सदा यहाँ है

जैसे गगन एक ही रहता, कई उपाधि चाहे उसकी
सदा मुक्त है एक आत्मा, अहंकार आदि हैं उपाधि

ब्रह्म से तृण तक सभी उपाधि, सभी अंत में मिथ्या है
एकरूप से स्थित परिपूर्ण, आत्मस्वरूप ही मात्र सत्य है

जिस वस्तु की जहाँ कल्पना, भ्रम से ही वह वहीं दीखती
ज्ञान हुए पर सत्य प्रकटता, कल्पित वस्तु खो जाती

जैसे रज्जु सर्प के भ्रम से, दुःख का कारण बन जाती
जग भी विलग स्वयं से लगता, जब आत्मविस्मृति हो जाती

स्वयं ही ब्रह्मा, स्वयं ही विष्णु, स्वयं ही इंद्र व शिवस्वरूप
स्वयं ही सारा जगत हुआ है, स्वयं से भिन्न न कोई रूप

स्वयं ही भीतर स्वयं ही बाहर, स्वयं ही आगे स्वयं ही पीछे
स्वयं ही दायें स्वयं ही बाएं, स्वयं ही ऊपर स्वयं ही नीचे


Wednesday, December 21, 2011

ध्यान विधि


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

ध्यान विधि  

मन को ब्रह्म में स्थित करें जब, तन स्थिर, इन्द्रियाँ संयमित
तन्मय होकर अखंड वृत्ति में, आत्म ब्रह्म एकता हो घटित

अनात्म चिंतन ही दुःख का कारण, मोहरूप देहाध्यास
मुक्ति का कारण आत्मा, आत्मचिंतन का हो अभ्यास

विज्ञानमय कोष में स्थित, स्वयंप्रकाश साक्षी आत्मा
अनित्य पदार्थों से पृथक हुआ जो, वही लक्ष्य हो सदा ध्यान का

चिंतन सदा आत्मभाव का, करे अखंड वृत्ति से ध्यान 
परमात्मा में स्थित होकर, आनंद रस का कर ले पान

Sunday, December 18, 2011

वैराग्य निरूपण


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


वैराग्य निरूपण

वैरागी जन त्यागी होते, भीतर-बाहर दोनों के ही
जिसे मोक्ष की इच्छा जागी, वैरागी जन हुआ वही

इन्द्रियों का संयम भी करता, अहंकार को भी तज देता
ब्रह्मनिष्ठ विरक्त पुरुष ही, सदा अमानी होकर रहता

बोध और वैराग्य दोनों, जैसे पंछी के दो पर होते
बिना एक के मोक्ष न संभव, एक पंख से खग न उड़ते

वैरागी समाधि को पाता, समाधिस्थ ही बोधवान है
जगबंधन भी छूटे उसका, वही हुआ आनंद वान है

वैराग्य में छिपा महासुख, आत्मज्ञान भी स्वर्गिक सुख 
मुक्ति का यह खुला द्वार है, क्यों सहते हो जग में दुःख

विषसम तज विषयों की आशा, मृत्युरूप अभिमान को त्यागो
देहाध्यास को छोड़ निरंतर, शुद्ध आत्मा में जागो 

Tuesday, December 13, 2011

समाधि निरूपण (शेषभाग)



श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि



समाधि निरूपण

अहर्निश अभ्यास सतत् हो, मन ब्रह्म में लीन निरंतर
निर्विकल्प समाधि द्वारा, आनंद का अनुभव हो भीतर

इसी समाधि के अनुभव से, नष्ट हुई कामना ग्रंथि
कर्मों का भी लोप हुआ फिर, स्वतः हुई स्वरूप की सिद्धि

मनन श्रेष्ठ सौ गुना श्रवण से, लाख गुना श्रवण से ध्यान
अनंत गुना श्रेष्ठ समाधि, जिससे चित्त को होता ज्ञान

निर्विकल्प समाधि द्वारा, ब्रह्मज्ञान का होता अनुभव
मन की एक अवस्था चंचल, अन्य अवस्था भी है संभव

शांत हुए मन से अचल हो, चित्त ब्रह्म में हो स्थिर
ब्रह्म आत्मा के ऐक्य से, ध्वंस करो अज्ञान जो भीतर

मौन, अपरिग्रह और अलोभ, अकाम व एकांत निवास
योग का पहला द्वार यही है, इससे ही होता आभास

चित्त वृत्तियों के निषेध से, नाश कामना का होता
नहीं वासना शेष रहे तब, ब्रह्मानंद का अनुभव होता

वाणी का मन में लय होवे, मन का बुद्धि में हो लय
बुद्धि का साक्षी आत्मा में, आत्मा पूर्णब्रह्म में लय

देह, प्राण, इंद्रिय, मन के, या बुद्धि के सँग हो वृत्ति
उसी भाव का बोध रहेगा, जिसके साथ जुड़ेगी वृत्ति

इन उपाधियों से छूटा मन, जब खाली हो जाता है
तत्क्षण ब्रह्म झलकता उसमें, आनंद अनुभव आ जाता है 

Monday, December 12, 2011

समाधि निरूपण


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि



समाधि निरूपण
निर्विकल्प समाधि द्वारा, आत्म स्वरूप का ज्ञान जो करता
अविद्या रूप हृदय ग्रंथि का, नाश तभी हुआ करता

परम आत्मा अद्वितीय है, ‘मैं’ ‘तू’ यह कल्पना उसमें
विघ्न रूप बनकर आती है, सविकल्प समाधि में

इन्द्रिय निग्रह योगी करता, विषयों से उपरति साधता
शांत चित्त से, क्षमा युक्त हो, समाधि का अभ्यास है करता

अविद्या से उत्पन्न हुए जो, ध्वंस करे हर एक विकल्प
आनंद पूर्वक ब्रह्म भाव में, रहे निष्क्रिय, निर्विकल्प

मन और इन्द्रियों को जो, लीन आत्मा में करता
जग बंधन से वही मुक्त है, न वह जो बस चर्चा करता

उपाधि के संयोग से ही, भेद आत्मा में होता
लय होने पर उपाधि का, केवल स्वयं ही रह जाता

एकाग्र चित्त हुआ साधक, सत्स्वरूप ब्रह्म में टिकता
ब्रह्म रूप ही हो जाता, ज्यों कीट भ्रमर होता

ध्यान मात्र करने से भ्रमर का, कीट भ्रमर हो जाता है
परमतत्व का चिंतन करते, परम भाव साधक पाता है

अति सूक्ष्म परमात्व तत्व है, स्थूल दृष्टि से कोई न जाने
अति सूक्ष्म बुद्धिमान ही, सूक्ष्म वृत्ति से उसको जाने

जैसे जलकर स्वर्ण शुद्ध हो, सभी मैल को तज देता है,
ध्यान अग्नि में मन जलने पर, तीनों गुण के पार हुआ है



Thursday, December 8, 2011

अधिष्ठान निरूपण


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


अधिष्ठान निरूपण

जैसे रज्जु देखते ही, सर्प भय नष्ट हो जाता
आत्मनिष्ठ होते साधक का, अज्ञान जनित दुःख मिट जाता

अग्नि के संयोग से जैसे, लौह भिन्न रूप धरता है
आत्मा के संयोग से ही मन, नाना रूप धरा करता है

प्रकृति के जितने विकार हैं, पल-पल रूप बदलते रहते
आत्मा सदा एक रसमय है, देहादि को असत् कहते

जो ‘मैं’ कहकर जाना जाता, वही अखंड साक्षी भीतर
अद्वितीय, चैतन्य स्वरूप वह, अन्तर्यामी, परम ईश्वर

सत्-असत् से सदा परे वह, आनंद घन परम आत्मा,
साक्षी भाव में टिका रहे जो, पाता वही है शांत आत्मा

Tuesday, December 6, 2011

आत्म निष्ठा का विधान


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
   

आत्म निष्ठा का विधान

स्थावर-जंगम सबके भीतर, बाहर भी जो स्वयं को देखे
 ज्ञानस्वरूप नर वही मुक्त है, मुक्त हुआ जो हर उपाधि से

आत्मरूप जो सबको देखे, वही मुक्त है जगबंधन से
आत्म निष्ठा में रहे निरंतर, दृश्य छोड़ टिके द्रष्टा में

जो आसक्त हुए रत हैं, सदा पदार्थों के संचय में
मुक्त नहीं वे हो सकते, मग्न सदा दृश्य प्रपंच में

जब तक अहंकार ज्यादा है, नहीं वासना मिट सकती
एकाएक न नाश हो सके, जन्मों से चली आ रही

अहं बुद्धि ही मोहित करती, आवरण-विक्षेप शक्ति बढती
द्रष्टा, दृश्य पृथक जो देखे, दोनों स्वयं ही मिट जाती

ब्रह्म आत्मा का ऐक्य ही, अविद्या को जला देता है
अद्वैत को प्राप्त हुआ फिर, पुनः जगत न पा सकता है

आत्मज्ञान की सदनिष्ठा से, आवरण का नाश हो जाता
मिथ्या ज्ञान भी मिट जाता है, विक्षेप जनित दुःख खो जाता 

Saturday, December 3, 2011

असत् परिहार


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

असत् परिहार

जीते जी जो मुक्ति पा ले, बाद मृत्यु के वही मुक्त है
अल्प मात्र भी भेद जो माने, नहीं हुआ वह ब्रह्म युक्त है

अणु मात्र भी भेद जो माने, उस अनंत ब्रह्म में साधक
भय को प्राप्त हुआ करता है, आत्मा का प्रमाद ही बाधक

दृश्य को जो माने द्रष्टा, दुःख का भागी ही होता है
श्रुति, स्मृति व युक्ति से, न आत्मा में स्थित रहता है

परम सत्य की खोज जो करता, मुक्त हुआ वह निज को जाने,
मिथ्या दृश्य के पीछे रहता, नष्ट हुआ वह दुःख ही जाने

तज असत् को आत्मनिष्ठ हो, दुःख को दूर हटा सकता है
विषयों का चिंतन दुःख भारी, आत्मज्ञान सुख दे सकता है

विषयों का निषेध हुए से, मन सहज आनंद से भरता
आनंद ही ईश्वर का लक्षण, जग का फिर हर बंधन कटता

जो विवेकी ज्ञानवान है, स्वाद मुक्ति का जिसने पाया
जानबूझ कर बालक वत् वह, नहीं असत् के पीछे धाया

जो देह आदि में आसक्त, मुक्त नहीं वह हो सकता
जिसने पायी है मुक्ति वह, देहासक्त नहीं हो सकता

जगा हुआ ज्यों नहीं सुप्त है, सोया हुआ नहीं जाग्रत
देहासक्त न मुक्त हुआ है, मुक्त नहीं देह में आसक्त
   



Friday, December 2, 2011

प्रमाद


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

प्रमाद 

यदि शेष कर्म बंधन है, सावधान रह करो साधना
आनंद घन दिव्य रूप का, कर चिंतन हो ब्रह्म भावना

कभी प्रमाद न होने पाए, अति ही भारी यह दोष है
ऋषियों ने भी यही कहा है, अनर्थ रूप प्रमाद मृत्यु है

निज स्वरूप की खोज सदा हो, कभी विवेकी प्रमादी न हो
मोह इसी कारण जगता है, मोह से अहंकार न हो

अहंकार से बंधन होता, बंधन बड़ा क्लेशकारी है
आत्मविस्मृति विषयों में लगाती, बुद्धि दोष विक्षिप्त कारी 

 जल से यदि हटाया क्षण भर, ज्यों शैवाल पुनः ढक लेती
आत्मविचार विहीन पुरुष को, माया भी है पुनः घेरती

असावधानी से छूटी गेंद, सीढियों पर लुढ़कती जाती
वृत्ति लक्ष्य से जब छूटी तो, नीचे को ही गिरती जाती

विषयों का जब चिंतन होता, कामना पुनः जाग्रत होती
आत्मस्वरूप से च्युत हो जाता, विषयों में प्रवृत्ति होती

विवेकी जन प्रमाद न करे, आत्मसिद्धि को यदि पाना है
सजग हुआ हो चित्त समाहित, ब्रह्म भाव में यदि जाना है