Friday, January 30, 2015

विश्वामित्र जी की घोर तपस्या, उन्हें ब्राह्णत्व की प्राप्ति

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

पञ्चषष्टितम सर्गः

विश्वामित्र जी की घोर तपस्या, उन्हें ब्राह्णत्व की प्राप्ति तथा राजा जनक का उनकी प्रशंसा करके उनसे विदा ले राजभवन को लौटना

उत्तर दिशा त्याग मुनि तब, पूर्व दिशा तप हेतु गये
परम मौन साध कर उत्तम, दुष्कर तप में लगे रहे

एक हजार वर्ष होने तक, थे निश्चेष्ट काष्ठ की भांति
कई विघ्नों का हुआ आक्रमण, आया किन्तु क्रोध नहीं

निश्चय पर रह अटल मुनि ने, अक्षय तप का किया वरण
पूर्ण हुआ जब व्रत उनका, करने चले थे अन्न ग्रहण

इसी समय ब्राह्मण वेश में, इंद्र ने उनसे की याचना
मुनि ने तब वह सारा भोजन, देने का निश्चय कर डाला

बिन खाए ही रहे गये वे, फिर भी कोई दुःख न माना
मौन का पालन किया यथावत्, पुनः एक अनुष्ठान किया

श्वासोच्छ्वास से रहित मौन रह, एक हजार वर्ष बिताये
उठने लगा था तप के कारण, मस्तक से तब धुआं उनके

हो संतप्त सभी घबराए, तीनों लोकों के प्राणी तब
मोहित हुए सर्प, राक्षस, देव, ऋषि, गन्धर्व नाग सब

कांति पड़ी थी फीकी सबकी, ब्रह्माजी को जाकर बोले  
विश्वामित्र रहे अविचलित, निमित्त कई गये अपनाये

किन्तु नहीं वे हुए प्रभावित, लोभ और क्रोध दोनों से
आगे ही बढ़ते जाते हैं, मुनिवर अपने तप के बल से

कोई दोष नहीं है उनमें, पूर्ण हुआ है तप उनका
मनचाही वस्तु न मिली तो, तप से होगा नाश बड़ा

धूम से आच्छादित हुई हैं, चार दिशाएं, कुछ न सूझे
डगमग धरती डोल रही है, क्षुब्ध हुए हैं सागर सारे

पर्वत हुए विदीर्ण जा रहे, आंधी भी प्रचंड चलती है
नहीं सूझता कोई उपाय, उपद्रव से पीड़ा बढ़ती है

कर्मानुष्ठान से हुए शून्य, नास्तिक की भांति विचरते
क्षुब्ध हुआ मन हर प्राणी का, किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुए वे

सूर्य प्रभा भी फीकी पड़ गयी, विश्वामित्र के तेज के आगे
अग्निस्वरूप हुए हैं मुनिवर, शांत करें उन्हें समय के रहते  

प्रलय कारक अग्नि ने जैसे, भस्म किया था पूर्वकाल में
वैसे ही ये भस्म न करें, जाने क्या अभिलाषा मन में

देवों का राज्य चाहें तो, दें डाले, पूर्ण करें इच्छा
मधुर वाणी में मुनि से बोले, ब्रह्मा आदि तब देवता

ब्रह्मर्षे ! स्वागत है तुम्हारा, हैं संतुष्ट तुम्हारे तप से
प्राप्त किया है ब्राह्णत्व, तुमने उग्र तपस के बल से

दीर्घ आयु प्रदान करता हूँ, मरुद्गण सहित तुमको मैं
हो कल्याण तुम्हारा सौम्य, सुखपूर्वक रहो इस जग में

विश्वामित्र ने बात सुनी जब, किया प्रणाम सभी देवों को
मिला मुझे ब्राह्णत्व, आयु भी, ओंकार भी वरण करे

षट्कार व चारों वेद भी, स्वयं मुझे धारण करें
धनुर्वेद, ब्रह्मवेद के ज्ञाता, वसिष्ठ स्वयं आकर कहें

ऐसा होने पर समझूंगा, हुआ मनोरथ पूर्ण मेरा तब
उसी अवस्था में जा सकते, आप यहाँ से श्रेष्ठ देवगण

देवों ने किया निवेदन, श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठ आये
‘एवमस्तु’ कहकर स्वीकारा, विश्वामित्र के मित्र हुए

ब्रह्मर्षि हो गये मुनि तुम, नहीं कोई संदेह है इसमें
ब्राह्नोचित संस्कार सधा है, कह देव सब लौट गये




Tuesday, January 20, 2015

विश्वामित्र का रम्भा को शाप देकर पुनः घोर तपस्या के लिए दीक्षा लेना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

चतुष्टितमः सर्गः

विश्वामित्र का रम्भा को शाप देकर पुनः घोर तपस्या के लिए दीक्षा लेना

हुआ उपस्थित है देवों का, एक बड़ा कार्य, हे रम्भा !
काम-मोह के वश हो जाएँ, विश्वामित्र मुनि को लुभा

‘तू ही ऐसा कर सकती है’, सुनकर लज्जित हुई अप्सरा
हाथ जोड़कर बोली तब वह, मुनि का क्रोध है अति बड़ा

उनसे मुझे अति भय लगता है, कृपा करें हे देवेश्वर !
‘भय न कर’ यह कहा इंद्र ने, खड़ी कांपती थी थर थर

नव पल्लव से वृक्ष भरे हों, उस वैशाख माह में जाना
कोकिल मधुर रागिनी गाये, कामदेव संग मैं भी रहूँगा

परम कांति मय रूप है तेरा, हाव-भाव से होकर युक्त
विचलित कर दे महामुनि को, विविध गुणों से हो संयुक्त

देवराज की आज्ञा पाकर, सुंदर रूप बनाया उसने
गयी जहाँ मुनि तप करते थे, भाव से लुभाया उसने

मीठी बोली सुन कोकिल की, हुए प्रसन्न मुनि ने देखा
रम्भा खड़ी दिखायी दी तब, संदेह ने मन को घेरा

समझ गये वे पल भर में ही, देवराज का रचा कुचक्र
क्रोध में भरकर शाप दिया, बन जा तू प्रतिमा प्रस्तर

तप करने को मैं तत्पर हूँ, काम-क्रोध जीतना चाहता
रह दस सहस्त्र वर्ष तक शापित, फिर होगा उद्धार तेरा

ऐसा कहकर हुए संतप्त, क्रोध किया था महामुनि ने
कामदेव व इंद्र खिसक गये, सुनकर शापयुक्त वचन ये

हुआ तपस्या का क्षय मुझसे, अभी इन्द्रियां नहीं हैं वश में
यही विचार कर हुए अशांत, कुछ न बोलूँगा अब से

सौ वर्षों तक श्वास न लूंगा, देह को तप से सुखा ही दूंगा
जब तक ब्राहमणत्व न मिले, बिन खाये ही पड़ा रहूँगा

ऐसा दृढ़ निश्चय करके ली, मुनिवर ने दीक्षा तप की
एक हजार वर्ष का तप था, नहीं है तुलना उस तप की

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौसठवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Tuesday, January 6, 2015

विश्वामित्र को ऋषि एवं महर्षि पद की प्राप्ति

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

त्रिषष्टितमः सर्गः

विश्वामित्र को ऋषि एवं महर्षि पद की प्राप्ति, मेनका द्वारा उनका तपोभंग तथा ब्रह्मर्षि पद की प्राप्ति के लिए उनकी घोर तपस्या

एक सहस्त्र वर्ष बीते जब, व्रत समाप्ति का किया स्नान
तप का फल देने हेतु तब, आये देव सब उस स्थान

ब्रह्माजी ने कहे वचन ये, मधुर अति थी वाणी उनकी
हो कल्याण तुम्हारा मुनिवर, अब शुभकर्मों से हुए ऋषि

स्वर्ग गये ब्रह्मा जी कहकर, तप में पुनः लगे थे मुनिवर
बहुत समय जब बीत गया था, आयी मेनका तब पुष्कर

अति सुन्दरी थी अप्सरा, रूप और लावण्य अद्भुत
जल में शोभित होती ऐसे, बादल में ज्यों चमके विद्युत

हुए काम आधीन मुनि तब, बोले ऐसा उसे देखकर
स्वागत है तेरा अप्सरा, इस आश्रम में तू निवास कर

हो रहा हूँ काम से मोहित, कर कृपा, भला हो तेरा
ऐसा कहने पर उनके वह, रहने लगी वहीं अप्सरा

तप का विघ्न हुआ उपस्थित, दस वर्ष ऐसे ही बीते
लज्जित हुए मुनि चिंतित भी, गहन शोक में तब डूबे

मुनि के मन में एक विचार, रोषपूर्वक हुआ था उत्पन्न
देवताओं की है करतूत, मेरे तप का किया अपहरण

दस वर्ष पल में बीते हैं, कामजनित मोह ने बांधा
देवों का प्रयास ही आया, तप के पथ में बनकर बाधा

लम्बी साँस खींचकर मुनिवर, पश्चाताप से हुए दुःखित
थर-थर भय से हुई अप्सरा, हाथ जोड़ आयी कंपित

कुशिका नंदन विश्वामित्र ने, मधुर वचन कह विदा किया
स्वयं गये उत्तर पर्वत पर, दुर्जय तप आरम्भ किया

निश्चयात्मक बुद्धि का तब, लिया आश्रय कौशिकी तट पर
कामदेव पर विजय हेतु तब, तप किया हजार वर्ष तक

देवों को तब भय हो आया, ऋषियों संग चर्चा की मिल
महर्षि की पदवी पा लें, उत्तम बात यही इनके हित

स्वागत है महर्षे तुम्हारा, ब्रह्माजी फिर जाकर बोले
ऋषियों में श्रेष्ठता देता, हूँ संतुष्ट तुम्हारे तप से

ब्रह्मर्षि का पद चाहता, कर प्रणाम तब कहा मुनि ने,
जितेन्द्रिय स्वयं को समझूंगा, शुभकर्मों का फल ये दें

ब्रह्मा जी ने कहे वचन तब, जितेन्द्रिय अभी नहीं हुए
प्रयत्न करो इसके हेतु तुम, स्वर्गलोक वह चले गये

पुनः तपस्या की आरम्भ, दोनों हाथ उठाये ऊपर
बिना किसी आधार के खड़े, रहते केवल वायु पीकर

पंचाग्नि का सेवन करते, वर्षाकाल, खुले में रहते
एक हजार वर्ष किया तप, शीत काल, जल में रहते
तब भारी संताप हुआ था, देवों और इंद्र के मन में
रम्भा से इक बात कही तब, मरुद्गणों सहित इंद्र ने

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ.